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जैन वास्तव में धार्मिक अल्प संख्यक ही हैं

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जैन वास्तव में धार्मिक अल्पसंख्यक ही हैं
 लेखक
सुरेन्द्र बोथरा

1. अखबारों में एक खबर छपी थी  ‘अल्पसंख्यक आयोग के एक सदस्य ने सरकार को सुझाव दिया है कि जैनों को अल्पसंख्यकों की सूचि में शामिल किया जाना चाहिए।’ तत्काल कुछ लोग समर्थन में बोलने लगे तो कुछ विरोध में। जैसा कि अक्सर होता है, तथ्यों की गहराई में गए बिना जिसके मन में जो उपजा वह कह दिया। एक मुद्दे से कई मुद्दे निकाले गए और बहस पर बहस चलने लगी। भ्रान्तियां कम होने के स्थान पर बढत्रष्ष् ेचंदत्रष्ष् नतीजात्रष्ष् अनतत्रष्ष् औरत्रष्ष् लगध्ंत्रष्ष्झ

अच्छा हो कि ऐसे मसलों पर कोई अभिमत देने से पहले सभी तथ्यों को भली भांति समझने की चेष्टा की जाए। मूल प्रश्न यह कि ये अल्पसंख्यक आखिर हैं कौन?

2. अल्पसंख्यक शब्द को भरतीय संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है। यह संवैधानिक बात अभी भी अनिर्णित ही है। पर अब इस ओर प्रयत्न होना आरम्भ हो गया है। वैसे उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में उल्लेख किया था कि संख्या की दृष्टि से राज्य की पूरी आबादी के 50 प्रतिशत से कम संख्या वाले भाषाई अथवा धार्मिक समाज को अल्पसंख्यक समाज कहा जाता है। इस बात की पुष्टि हुई गृह मंत्रालय के एक प्रस्ताव में। भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 12.1.1978 के एक प्रस्ताव के द्वारा एक अल्पसंख्यक आयोग का गठन धार्मिक तथा भाषाई अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए किया  प्रस्ताव सं. 2/16012-271/ एन. आइ. डी डी , दिनांक 12.1.78  । इन हितों का आधार संविधान की धाराएं 25 से 30 हैं।

3. प्रत्येक अल्पसंख्यक समूह की संस्कृति, वैचारिक व सामाजिक विशिष्टता, स्वतंत्रता और अस्मिता, जो बहुआयामी भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है, किसी संख्या बाहुल्य में बह न जाए, शायद इसी भावना से प्रेरित हो इस आयोग का गठन हुआ था। उस समय धार्मिक अल्पसंख्यक लोगों की गिनती में आते थे  ईसाई, जैन, पारसी, बौद्ध, मुसलमान, और सिख। 1991 की जनगणना का उल्लेख इस प्रकार है - 1. मुसलमान  952.33 लाख, 2. ईसाई  188.96 लाख, 3. सिख  162.43 लाख, 4. बौद्ध  63.23 लाख, 5. जैन  33.32 लाख, और 6. पारसी  00.75 लाख

4. अत यह स्पष्ट है कि जैन समाज धर्मिक अल्पसंख्यक समाज हैक् यह कोई अभिनव अपेक्षा या नई और अनोखी मांग नहीं है। यह एक यथार्थ था और है। वैसा ही यथार्थ जैसा यह कि चीन संसार में सबसे बडी आबादी वाला देश है या कि भारत संसार का सबसे बडा गणतंत्र है। ये ऐसे तथ्य हैं जहां किसी अपेक्षा या मांग या वैधानिक पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती। और इसीलिए जैन समाज अल्पसंख्यकों की मूल सूचि में सामाजिक रूप से शामिल था।

5. इस स्थिति को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून (1992) ने बदल दिया। इस नए कानून ने सरकार को अल्पसंख्यकों की एक सूचि बनाने का अधिकार प्रदान किया (धारा 2 द्वारा)। इस कानून में अल्पसंख्यकों की पहचान के कोई मापदण्ड अथवा दिशा निर्देश नहीं हैं। इस सूचि में किसे शामिल किया जाए यह सरकार के विवेक अथवा स्वनिर्णय पर छोड दिया गया। इस नियम का अन्तर्निहित अर्थ यह है कि अल्पसंख्यक समाज केवल वे ही हैं जो इस सूचि में शामिल किए जाएं। साथ ही जो समाज धार्मिक अल्पसंख्यक होने के बावजूद इस सूचि में शामिल नहीं किए गए हैं वे स्वाभाविक रूप से सरकार की दृष्टि में तथा सरकारी लेखे-जोखे में हर संदर्भ में धार्मिक बहुसंख्यक समाज के ही अंग समझे जाएंगे। इस कानून के बनने के बाद समाज कल्याण संबंधी दिनांक 23.10.93 की एक अधिसूचना के माध्यम से धार्मिक अल्पसंख्यकों की एक सूचि जारी की गई जिसमें मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, तथा पारसी, ये पांच शामिल किए गए और जैनों को बाहर रखा गया। 1992 के इस कानून से जो परिवर्तन आया उसी के बाद आरंभ हुई जैनों को पुन धार्मिक अल्पसंख्यकों की सूचि में शामिल करने की मांग।

6. इस परिवर्तन के जो स्पष्ट प्रभाव समझ में आते हैं वे हैं  धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों के लिए जो भी वैधानिक या कानूनी प्रावधान किए गए हैं या किए जाएंगे वे जैनों पर लागू नहीं होंगे। जैन धर्म के एक स्वतन्त्र धर्म व दर्शन होने के बावज़ूद उसके अनुयाइयों पर बहुसंख्यक धार्मिक समाज सम्बन्धी कानून ही लागू होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि देवस्थानों के विषय में राज्य की दृष्टि में जैन मदिरों का विशिष्ट दर्जा समाप्त हो जाएगा और वे सभी कानूनी मामलों में हिन्दू मंदिरों की श्रेणी में ही समझे जाएंगे। यही स्थिति जैनों की शिक्षण तथा अन्य धार्मिक-सामाजिक संस्थओं की होगी। इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि 10.1.1997 को वैष्णो देवी मंदिर के प्रबन्ध के मुकदमे के फैसले में उच्च न्यायालय ने कहा है कि - - ‘सरकार को किसी भी हिन्दू मंदिर के प्रबन्ध को अपने हाथ में लेने का पूर्ण अधिकार है।’

7. ऐसी स्थिति में यदि किसी प्रश्न को कोई स्थान है तो वह है  ‘जब धार्मिक दृष्टिकोण से जैन अल्पसंख्यक हैं तब उन्हें उस घोषित सूचि से बाहर क्यों रखा गया ?’ यदि ऐसा किसी भूल के कारण होगया था तो इस भूल को सुधार कर उन्हें उस सूचि में शामिल क्यों न कर दिया जाय? बात तब उलझती है जब उस भूल को सुधारने की बात का विरोध होता है। यदि इस विरोध के पीछे कोइ तर्कसंगत या ठोस कारण है तो वह खुल कर बाहर क्यों नहीं आता? जब ऐसे उचित प्रश्नों के उŸार नहीं मिलते तो स्वाभाविक ही है कि अशंकाएं जन्म लेंगी और धीरे-धीरे एक मांग के रूप में अभिव्यक्त होने लगेंगी।

8. धर्मिक अल्पसंख्यकों की सूचि से निकाल दिए जाने और पुन शामिल न करने के पीछे किसी सामाजिक या आर्थिक लाभ-हानि का मापदण्ड हो तब भी बात समझ में आती है, चाहे वह सच हो या कल्पना मात्र। किन्तु जिस समाज के पास सभी कुछ हो वह सरकार से क्या लाभ चाहेगा? जैन समाज तो आर्थिक रूप से समृद्ध समूहों में से है, शैक्षणिक योग्यता में वह ऊंचे स्तर पर है, और सांस्कृतिक रूप से भी वह विकसित और अग्रणी है। जैन तो यह घोषित भी करते हैं कि उन्हें ऐसे किसी विशेष लाभ की न तो आवश्यकता है और न अपेक्षा। यही नहीं जैनों का एक बहुत बडा भाग तो इस शर्म से कि ‘आरक्षण’ शब्द के कारण उन्हें कहीं पिछडे वर्ग में न समझ लिया जाए, धर्मिक अल्पसंख्यकों की सूचि में शामिल होने का विरोध भी करता है। अत यह स्पष्ट है कि जैनों की यह मांग किसी भी प्रकार के आरक्षण अथवा आर्थिक लाभ पाने के हेतु नहीं बल्कि अपनी स्वतन्त्र धार्मिक व सांस्कृतिक अस्मिता को अक्षुण्ण रखने के लिए है। यों तो यह प्रत्येक नागरिक का नैसर्गिक अधिकार है किन्तु जब सरकार ने स्वयं ही धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए विशेष प्रवधान किया है और जैनों को स्वाभविक रूप से उपलब्ध भी हुआ तब अचानक अकारण उन्हें उससे वंचित कर देना अन्याय नहीं तो और क्या है?

9. जब इस प्रश्न का कोई तर्कसंगत उŸार सुझाई नहीं देता तो कुछ लोग पुकार उठते हैं कि अल्पसंख्यक वर्ग में शामिल होने से जैनों की गिनती किसी हेय वर्ग में होने लगेगी। इस आशंका का कोई आधार नहीं है, क्योंकि यह सूचि केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों की है। मंडल, दलित, आर्थिक रूप से अकिंचन वर्गों, अनुसूचित जातियों आदि की सूचियों की तरह नहीं। वैसे भी जैन सैद्धान्तिक रूप से ही नहीं व्यावहारिक स्तर पर भी किसी हेय-श्रेय या उच्च-नीच या उत्कृष्ट-निकृष्ट जैसे वर्गभेद या वर्णभेद को स्वीकार नहीं करते। यदि कुछ लोग ऐसा मानते हैं तो वह मान्यता आरोपित है, बाहरी प्रभाव है। सामाजिक संगठन के लिए विकसित की गई वर्ण व्यवस्था तथा जाति व्यवस्था के विकृत स्वरूप से उत्प विषमताओं को दूर करने का सफलतम प्रयोग जैनों ने ही किया था। दो हज़ार वर्षों के निरन्तर और विभि राजनैतिक, आर्थिक, और अन्य प्रहारों के बावज़ूद सामान्य विकृतियों को छोड जैनों का वह आधारभूत सामाजिक संगठन आज भी विद्दमान है; जैनों में जाति या वर्ण पर आधारित ऊंच-नीच को कोई स्थान नहीं है।

10. जैन अल्पसंख्यक हैं इस बात के विरोध में अक्सर एक और बात दोहराई जाती है  ‘जैन तो हिन्दू ही हैं, फिर अल्पसंख्यकों में अलग से गिनती करने का कोइ कारण नहीं है।’ यह अल्पसंख्यकता धार्मिक है यह बात स्थापित हो जाने के बाद भी यदि यह तर्क दिया जाता रहे तो लगता है भ्रान्ति कहीं गहरी है। आवश्यक होगा कि इसे स्पष्ट समझने की चेष्टा की जाए।

11. ‘जैन तो हिन्दू ही हैं।’ यह बात प्रथम दृष्टया ठीक ही लगती है पर यह नहीं देखा जाता कि यहां हिन्दू शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यहां हिन्दू शब्द धर्मवाची नहीं है। यहां हिन्दू का अर्थ है भारतीय संस्कृति में संस्कारित लोग। और इस संदर्भ में हिन्दू एक बहुत व्यापक अवधारणा है जिसे किसी धर्म विशेष में समेटा नहीं जा सकता। सच पूछें तो हिन्दू शब्द जिस अर्थ में यहां प्रयुक्त हुआ है उस अर्थ की उत्पŸिा नकारात्मक है।

12. व्यक्ति की पहचान का सबसे सरल मापदण्ड यह है कि वह किस समूह विशेष से जुडा हुआ है। इस पहचान को हम जितना अधिक स्पष्ट करना चाहते हैं वह उतने ही विभि समूहों से जुडती जाती है। इस देश में रहने वाले व्यक्ति की सबसे सामान्य पहचान है इस देश का नागरिक होना और इसके लिए हम उपयोग करते हैं भरतीय अथवा हिन्दुस्तानी शब्द का। इससे अधिक विशिष्ट पहचान चाहने पर हम विभि संदर्भों में विभि समूहवाचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं, जैसे  बंगाली, ब्राह्मण, पहाडी, मजदूर, छात्र, आदि। इसी प्रकार जब सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में विशाल समूहों के रूप में लोगों को पहचाने जाने की आवश्यकता पडी तो प्रक्रिया कुछ इस प्रकार आरम्भ हुई  यह विशिष्ट समूह ईसाई है, यह चीनी है, यह मुसलमान है, यह आदिवासी है, आदि। इस प्रक्रिया का अन्त हुआ इस बात में कि जो ऐसी किसी अन्य सांस्कृतिक पहचान वाले पृथक सामाजिक संगठन में शामिल नहीं हैं वे सभी हिन्दू हैं। हिन्दू शब्द के इस व्यापक अर्थ में वैष्णव भी शामिल हैं तो बौद्ध जैन और सिख भी; बंगाली भी शामिल है तो कश्मीरी, गुजराती, और मद्रासी भी; ब्राह्मण भी शामिल है तो क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र भी; कॉकेशियन भी शामिल है तो नीग्रोइड और मोंगोलाइड भी। जिसे हम भारतीय सभ्यता या हिन्दू सभ्यता कह कर संबोधित करते हैं उस बहुरंगी संस्कृति में ऐसी ही रीति-रिवाज़ों की, रहन-सहन की, खान-पान की, पहनावे की, धार्मिक, सामाजिक, भाषाई, आदि असंख्य विविधताएं सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व की भावना लिए सिमटी हैं ।

13. इस दृष्टिकोण से सामाजिक संदर्भ में जैन इस वृहŸार हिन्दू समाज से अलग नहीं हैं, सच में ही उसके एक अविभाज्य अंग हैं। यह भी सच है कि जैन सदा ही भारतीय संस्कृति या वृहŸार हिन्दू समाज के अंग होने में गौरव का अनुभव करते आए हैं तथा उसे समृद्ध बनाने में अनादि काल से महत्वपूर्ण योगदान करते आये हैं। इस वृहŸार हिन्दू समाज में पुनर्जन्म तथा कर्मवाद में आस्था रखने वाले वैदिक, जैन, सिख, तथा बौद्ध आदि पंथों के अनुयायी ही नहीं अनेकों विभि स्थानीय या क्षेत्रीय देवी-देवताओं को मानने-पूजने वाले भी शामिल हैं।

14. किन्तु यदि हम धर्म (पंथ) की बात करते हैं और हिन्दू शब्द का अर्थ पंथ विशेष के अनुयायी बता कर यह स्थापित करना चाहते हैं कि जैन तो हिन्दू ही हैं, तो वही वाक्य ग़लत हो जाता है। जैन धर्म उस धर्म का अंग नहीं है जिसे प्रचलित भाषा में हिन्दू धर्म कहा जाता है। जैन धर्म उस प्राचीनतम श्रमण परम्परा की एक स्वतंत्र शाखा है जो कर्ता ईश्वर में आस्था नहीं रखती। उसी श्रमण परम्परा की कर्ता ईश्वर में आस्था नहीं रखने वाली एक अन्य शाखा है बौद्ध धर्म। जो जैन धर्म को हिन्दू धर्म की शाखा बताते हैं वे संभवत तथ्यों से अनभिज्ञ हैं और उनकी टिप्पणि पर इससे अधिक प्रतिक्रिया की आवश्यकता नहीं कि वे अपनी जानकारी बढत्रष्ष् कात्रष्ष् ेचंदत्रष्ष् ह्ययतनत्रष्ष्झ

15. हिन्दू एक अनेकार्थक शब्द है और यही इस भ्रान्ति का मूल है। ऐसे शब्दों का प्रयोग सुविधानुसार अपने-अपने निहित स्वार्थों के लिए करना अनुचित है, यह बात सभी को समझनी चाहिए। ऐसी भ्रान्तियों से बचा जा सके इसलिए ऐसे शब्दों का प्रयोग सावधानी से तथा स्पष्टीकरण के साथ किया जाना चाहिए। पाश्चात्य लोगों ने तो ऐसी सब भ्रान्तियां भारत को दुर्बल बना कर राजनैतिक ही नहीं सांस्कृतिक दासता में जकडने के लिए सुनियोजित ढत्रष्ष् ीाीत्रष्ष् परिवत्रनत्रष्ष् सवतनत्रष्ताष् सेत्रष्ष् ुेलाईंत्रष्ष् ेचंदत्रष्ष् नत्रष्ष् लानेत्रष्ष्झ

16. जैनों की इस मांग के विरोधी एक और भय दिखाते हैं। वह यह कि यदि जैन अल्प-संख्यकों में शामिल होने पर ज़ोर देंगे तो बहुसंख्यक हिन्दू धर्मावलम्बी के नाम से पहचाने जाने वाले लोग उनके विरुद्ध हो जाएंगे, नाराज़ हो जाएंगे, आपस में हिलमिल कर नहीं रहेंगे, आदि। यह आशंका एक थोपे हुए या उधार लिए हुए दृष्टिकोण की उपज है। ऐसा लगता है कि जो लोग भारतीय संस्कृति के स्वयंभू कर्णधार बने बैठे हैं वे भी इस संस्कृति को पाश्चात्य दृष्टिकोण से देखने के ही आदी हो गए हैं। वैचारिक तथा आस्था के जन्मजात वैयक्तिक अधिकार के साथ सामाजिक स्तर पर परस्पर आदर और सौहार्द सहित सहअस्तित्व की भावना से परिपूर्ण हमारी जीवन शैली और समाज व्यवस्था को ये लोग आधुनिकता या प्रगतिशीलता की दुहाई दे पाश्चात्य मापदण्डों पर ही तोलते हैं। विघटन की इस दुरभिसन्धि में तथाकथित विरोधी के रूप में इनके साथ वे लोग भी शामिल हैं जो धर्म पर संस्थाबद्ध एकाधिकार जमा कर रूढियों के सहारे निरीह जनमानस को सदियों से भ्रान्तियां परोसते आरहे हैं। साम्प्रदायिक मतभेदों का और साम्प्रदायिकता का जो कट्टर स्वरूप आज देखने को मिल रहा है वह भी ऐसे ही रूग्ण दृष्टिकोणों की देन है।

17. वस्तुत भारतीय संस्कृति में संप्रदायों का वह स्थान ही नहीं है जो उनका पाश्चात्य संस्कृतियों में है। यही कारण है कि पाश्चात्य जानकार न तो भली भांति हमारी संस्कृति के मर्म को समझ पाते न धर्म या सम्प्रदाय की अवधारणाओं को। हमारे यहां सम्प्रदायों का स्थान उन आवश्यक घटक्रो से विशिष्ट कभी नहीं रहा जो समाज की संरचना के स्वाभाविक अंग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति या समूह को अपनी अनुष्ठान विधि, आस्था, आचार पद्धति, आदि चुनने की उतनी ही स्वतंत्रता है जितनी आवास, वó, भाषा, शिक्षा, मनोरंजन के साधन, आदि चुनने की। यही कारण है कि एक ही घर-परिवार में अनेक देवी-देवताओं की पूजा होना सामान्य बात है। ऐसे परिवारों की संख्या नगण्य मिलेगी जहां सभी सदस्य केवल एक देवी या देवता या गुरू के उपासक हों। किसी बाहरी दबाव से ऐसा होता भी है तो वह लम्बे काल तक टिकता नहीं। आस्थाओं का यह सह-अस्तित्व हमने सेक्यूलेरिज्म शब्द के आयात के बाद नहीं सीखा है। यह हमारी संस्कृति के हज़ारों वर्षों के प्रयोगों और अनुभवों से विकसित मानसिकता है जो नेताओं के लाख प्रयत्नों के बावजूद धूमिल अवश्य हुई है पर नष्ट नहीं हो सकी है।

18. हमारी संस्कृति विविधताओं के सह-अस्तित्व की संस्कृति है जिसे हम आजकल पाश्चात्य एकीकरण या सपाट व्यावहारिक-समानता आदि के संकुचित दृष्टिकोण से देखने-समझने की निष्फल चेष्टा में जुटे रहते हैं। ऐसी सतही एकता और समानता का नितान्त अस्थाई स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है साम्यवाद या एकतंत्रीय तानाशाही व्यवस्थाओं के अनुशासन में। इस सपाट समानता को महानता का जामा पहना कर हम अपनी संस्कृति की अन्तर्निहित व नैसर्गिक और स्वस्थ व निर्द्वन्द विविधता को कुचलने का प्रयास अक्सर करने लगते हैं। फलस्वरूप एकता या समानता उपलब्ध होने के स्थान पर मतभेद और आशंकाएं मन में पलने लगती हैं।

19. भरतीय संस्कृति में अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक जैसी परिकल्पनाओं को संगठनात्मक रूप से नहीं देखा गया है। इसका कारण यह है कि हम भली भांति समझते हैं कि जिन समूहों को बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक कहा जाता है वे सभी अपने उद्गम काल में एक-संख्यक होते हैं। इसीलिए हम अल्प का भी उतना ही आदर करते हैं जितना बहु का। हमारी संस्कृति समाज के गुणात्मक संगठन पर आधारित है संख्यात्मक संगठन पर नहीं। संख्यात्मक संगठन की मानसिकता थोपी हुई है। संख्या बहुलता द्वारा आतंक उत्पन्न करने के स्थान पर हमारी संस्कृति संख्या की अल्पता को विशेष स्नेह देती है। क्योंकि हम प्रकृति में रही लघुतम वस्तु की स्वतन्त्र अस्मिता को सादर स्वीकार करते हैं। हमारा सह-अस्तित्व भय या आतंक पर आश्रित नहीं है, वह सहीष्णुता, भ्रातृत्व, और परस्पर सहयोग पर आधारित है। ऐसा नहीं है कि हम संख्या को महत्व ही नहीं देते, या संख्या कभी प्रभावी ही नहीं होती। पर वैसा हमारी संस्कृति के लिए स्वाभाविक नहीं परिस्थितिजन्य है। जब समाज के शीर्ष पर स्वार्थ स्थापित हो जाए तब उस स्वार्थ द्वारा शोषित होने से बचने के लिए संख्या का शó काम में लेना ही पडता है।

20. भरतीय संस्कृति ऐसी वैविध्यपूर्ण संस्कृति है जिसमें प्रत्येक विविधता को स्थान है चाहे वह परस्पर विरोधी ही क्यों न हों। हमारे लिए एकता देशप्रेम की वह डोरी है जिसमें विविध रंग, रूप, आकार, और भार की मणियां पिरोई हुई हैं। जो इन मणियों के रंग, रूप, आकार, और भार के समान होने में समानता बताते हैं वे स्वयं भटकते हैं और अन्यों को भी भटकाते हैं । अनेकता में निहित एकता और एकता में समाहित अनेकता हमारी संस्कृति की वह अनूठी उपलब्धि है जो संसार की किसी भी अन्य संस्कृति में इतने व्यापक और गहन रूप में दिखाई नहीं देती। ऐसी अनेकता-एकता का एकमात्र अन्य उदाहरण संभवत सं.रा.अमेरीका में उपलब्ध है। किन्तु वह प्रयोग अपने दो शताब्दि के शैशव काल में है। वहां एकता-अनेकता अभी परिस्थितिजन्य दौर से ही गुज़र रही है। उसे हमारे यहां की तरह नैसर्गिक रूप धारण करने में अभी कई पीढियां लगेंगी।

21. ऐसी अ˜ुत किन्तु परिपक्व एकता का आधार किसी समूह विशेष को अल्पसंख्यक सूचि में शामिल करने जैसी गौण सी बात से ढत्रष्ष् ीारपूरत्रष्ष् ीाूलत्रष्ष् पासत्रष्ष् पनपानेत्रष्ष् पÿोत्रष्ष् रखनेत्रष्ष् ााद्रमक,त्रष्ष् ाताओंत्रष्ष् संसकृतित्रष्ष् समृद्धित्रष्ष् समूहत्रष्ष् सह-असिततवत्रष्ष् सहीष्णुतात्रष्ष् सांसकृतिक,त्रष्ष् सवतंत्रष्ताष् सेत्रष्ष् सोचत्रष्ष् दाश्रनिक,त्रष्ष् दोअेत्रष्ष् वत्रष्ष् वेमनसयत्रष्ष् वेसीत्रष्ष् वेचारिकत्रष्ष् तािात्रष्ष् तोत्रष्ष् ेचंदत्रष्ष् जीवनत्रष्ष् जीवनतत्रष्ष् जाएगात्रष्ष् जायगात्रष्ष् जातेत्रष्ष् जेसेत्रष्ष् नहध्त्रष्ष् अपनीत्रष्ष् आशंकात्रष्ष् आशंकांत्रष्ष् आत्रष्ष् आसमानत्रष्ष् अक्षुण्णत्रष्ष् औरत्रष्ष् ग़लतत्रष्ष् ह्ययासत्रष्ष्झ

22. आज जब यह अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का प्रश्न उठा ही दिया गया है तो मेरा अनुरोध है कि वे सभी वैदिक अथवा अन्य धर्मावलम्बी बन्धु जो जैनों की इस मांग के पक्ष में नहीं हैं अपने आप से एक प्रश्न पूछें  ‘क्या पश्चिम की मानसिक दासता से जन्मी असहीष्णु सांप्रदायिकता के बहाव में बह कर वे राजनीतिक स्वार्थों की बलिवेदी पर भारतीय संस्कृति अथवा वृहŸार हिन्दू समाज के एक विशिष्ट, स्वतंत्र, और प्राचीन घटक की आहुति देना पसन्द करेंगे?’

23. वे सभी जैन बंधु भी जो इस मांग का विरोध करते हैं अपने आप से एक प्रश्न पूछें  ‘क्या वे चाहेंगे कि वे वैदिक या अन्य किसी भी संप्रदाय की एक शाखा के रूप में पहचाने जाएं और उनकी एक स्वतंत्र, विशिष्ट, महान, और प्राचीन धर्म, दर्शन, और संस्कृति के रूप में अस्मिता समाप्त करने का उपक्रम आरंभ हो जाए?’

1.11.99/ सुरेन्द्र बोथरा, 3968, रास्ता मोती सिंह भोमियान, जयपुर - 302003. फोन  (91-141) 2569712

Email : surendrabothra@gmail.com

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