जैन साधू एवं साध्वियां मोक्ष मार्ग के साधक होते हैं।अरिहंत परमात्मा के बताये हुए संयम एवं साधना के मार्ग पर निरंतर एवं निरलस चलते हुए अन्य जीवों को भी मोक्ष का मार्ग बताते हैं। वे भगवन महावीर के वीर सैनिक हैं जो किसी भी परिस्थिति में अंगीकार किये हुए धर्म को नहीं छोड़ते एवं अनेक सांसारिक कष्टों को सहते हुए भी मुस्कराते हुए अपने महा अभियान में लगे रहते हैं। उनकी अष्ठ स्वयं अपनी आत्मा एवं प्रभु महावीर में सतत बनी रहती है। वे संसार से भागनेवाले नहीं होते अपितु संसार के वास्तविक स्वरुप को समझ कर उसके प्रति अपनी कामनाओं का त्याग करने वाले होते हैं। वे निरंतर गतिशील एवं प्रगतिशील होते हैं। वे किसी पर आश्रित नहीं होते परन्तु अन्य अनेक जीव उनका आश्रय ग्रहण करते हैं। वे अहिंसा आदि पञ्च महाव्रतों का पालन करते हैं, समिति एवं गुप्ती का धारण करते हैं। जन सामान्य के घर से मिल जाये ऐसा रुखा सुखा या राजभोग जो मिल जाये उसे जीवन धारण के लिए ग्रहण कर लेते हैं। नहीं मिलने पर क्रोध नहीं करते एवं उसे तपस्या मन कर समता भाव में लीं रहते हैं। कोई निंदा- प्रशंशा, मान - अपमान की परवाह नहीं करते. निरंतर पैदल विहार करते हुए लोगों को धर्मोपदेश दे कर उन्हें सन्मार्ग में जोड़ते हैं। ऐसे जैन साधू एवं साध्वियां निरंतर लोक कल्याण भी करते हैं। वे संघ एवं समाज से बहुत कम लेते और बहुत ज्यादा देते हैं. इसलिए भिक्षुक एवं धन वैभव रहित होते हुए भी सन्मान से उन्हें महाराज कहा जाता है। ये है जैन साधू का तात्विक एवं वास्तविक स्वरुप। वे समाज के सच्चे पथ प्रदर्शक होते हैं।
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