पर्यावरण के प्रति जैन दायित्व--सुरेन्द्र बोथरा
पर्यावरण की समस्या पिछले कई वर्षो से निरन्तर तीव्रगति से भयावह होती जा रही है। समस्या का आरंभ तो आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के पनपनेके साथ बहुत वर्षों पहले ही हो चुका था। पर हम उसकी ओर ध्यान देने को मजबूर हों ऐसी स्थिति कुछ वर्ष पूर्व ही बनी है। जैन संस्कृति के पास इस समस्या काहल तब भी था, और अब भी है। जैनों ने तब भी आगे बढ़ कर दुनिया को कोई हल नहीं सुझाया और न आज ही इस ओर कोई कदम उठा रहे हैं। आज भी जैनसमाज के शीर्षस्थ लोग यह कहते नहीं अघाते कि विज्ञान पर्यावरण की समस्या के जो अधूरे हल सुझा रहा है वे तो हमारे शास्त्रों में पहले से मौजूद हैं। विडम्बनायह है कि ऐसा कहने के बाद भी वे उन उपायों को सामाजिक जीवन में क्रियान्वित करने की ओर से उदासीन हैं। अधिकतर तो वे उनके विपरीत ही चलते रहते हैं।
पर्यावरण संरक्षण जैन जीवन पद्धति के आधार से जुडा है। वह इतना रचा-बसा था हमारे जीवन में कि हमारा स्वभाव बन गया था और आज उसकीअलग से पहचान भी बिसर चुकी है। कालान्तर में हमारी वह जीवन पद्धति ढांचे के रूप में तो बनी रही पर महत्त्व तथा उपयोग में आडम्बरों ने उसे सत्त्वहीनकर दिया। अब भी यदि उस पर से आडम्बरों की धूल हटा दी जाए तो आज की समस्याओं के श्रेष्ट समाधान उसमें से निकल सकते हैं। यह गहन शोध व कठिनपरिश्रम का विषय है क्योंकि उस जीवन पद्धति को ऐसे रूप में प्रस्तुत करना होगा जो आज के मानव की समझ में आ सके और वह उसे सहज ही अपना सके। परपहले हम यह तो देखें कि पर्यावरण की इस जटिल समस्या के किसी अंग का कोई आंशिक हल भी हमारे पास है क्या? और है तो कम से कम उस को उपयोग मेंलाकर उदाहरण प्रस्तुत करें। हम अपनी उदासीनता को तोड विचार तो पाएंगे कि समाधान ही नहीं हमारे पास उसके साधन भी उपलब्ध हैं। आवश्यकता है केवलउन्हें क्रियान्वित करने की इच्छा शक्ति को बल देने की।
पर्यावरण की बहुआयामी समस्या के हल की ओर दो प्रमुख क्षेत्र उभर कर आये हैं। प्रथम है वन-संरक्षण व संवर्धन और दूसरा उपलब्ध पारम्परिक ऊर्जाकी बचत। ये दोनों क्षेत्र ऐसे हैं जिनके पुराने विशेषज्ञ जैन ही हैं। ये दोनों बाते हमारे मूल व्रतों में निहित हैं और उनके व्यावहारिक पहलुओं पर भी विस्तार से चर्चाइुई है। दुःख यह है कि हम अपनी वही श्रेयस्कर जीवन शैली छोड़ आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं, और वह भी खोखले तर्कों के औचित्य के साथ।
वनस्पति में जीवन की पहचान, जीवन क्रिया के विनाश का बहिष्कार, जीवन में नियमन व अनुशासन का महत्व, वैमनस्य का मूलतः विरोध आदिअनेकों अंग है जो उस जीवन शैली को पर्यावरण मित्र बनाते हैं। पर यहाँ हमें केवल कुछ साधनों की चर्चा करनी है जो सदियो से जैन संजोते आए हैं। उनमें बहुतसे आज उपलब्ध भी हैं पर उनका इस दिशा में समुचित उपयोग नहीं हो रहा। हमें उस उपयोग की ओर कदम बढानें है।
हमारे देश के विभिन्न जैन संघों व संगठनों के पास विशाल संपत्ति है जिसका एक अंग भू संपत्ति भी है। हमारे प्राचीन मनीषियों ने पर्यावरण तथामानव समाज के बीच स्वस्थ संबंध बनाए रखने के लिए इसका उपयोग करने की परम्परा हजारों वर्ष पूर्व स्थापित की थी। इस परम्परा में समय-समय परविकास भी हुआ है और कहीं-कहीं यह नष्ट भी हुई है। नगरों में, गाँवों में, वनों में, पर्वतों पर, मंदिरों व अन्य धार्मिक स्थलों के साथ विशाल भू-खंड रखे जाते थे।ऐसी भूमि को व्यवस्थित तथा हरा भरा रखा जाता था, जिससे समाज (साधु तथा श्रावक) को दूरस्थ स्थानों पर भी सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध रहें औरवातावरण स्वस्थ, मनोहारी व शान्त रहे। ऐसे बहुत से स्थल तो नष्ट हो चुके हैं। कुछ बदलती परिस्थियों के कारण तो कुछ स्वयं हमारी अवहेलना के कारण।आज तो हमें भवन निर्माण का ऐसा शौक चढा है कि हम हरे भरे स्थानों को पत्थर के जंगलों में बदल डालने में जी जान से जुट गए हैं। मंदिर की या संगठन कीआय बढाने के लिए हरी भूमि को पत्थर या सीमेंट से ढांप देने के साथ हमने धर्म प्रभावना को जोड़ दिया है। यात्री सुविधाओं के नाम पर पेडों को नष्ट करने से भीनहीं चूकते, फिर चाहे वह काट कर तत्काल मृत्यु प्रदान करना हो या कि अवहेलना कर सूख जाने देकर धीमी मौत देना हो।
जैनों के पास ऐसे जितने स्थल उपलब्ध हैं उनकी जरा गिनती करके देखिये, आपको आश्चर्य होगा। जैनों के मंदिर, दादाबाड़ी, नसियां, स्थानक, उपाश्रय,धर्मशाला आदि सारे भारत के शहरों, गाँवों, ढाणियों यहाँ तक कि निर्जन स्थानों पर भी बिखरे पड़े हैं। बहुत से ऐसे हैं जिनकी व्यवस्था कोई संगठन कर रहा है, तोबहुत से ऐसे हैं जो व्यवस्था के अभाव में खंडहर हो चले हैं। ऐसे हर स्थान पर जहाँ जितनी भूमि उपलब्ध हो यदि वृक्षारोपण करें, जहाँ वृक्ष हैं वहाँ उन्हें और भी सघन बनाएं तो पर्यावरण को सुधारने में कितना बडा योगदान होगा, कल्पना करना कठिन नहीं है। और फिर इससे अन्यों को भी तो प्रेरणा मिलेगी।
दूसरा क्षेत्र है ऊर्जा की बचत का जिससे प्रदूषण का सीधा संबंध है। जैन इसके भी पुराने विशेषज्ञ हैं। अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय आदि सभी हमें आज कीउपभोक्ता संस्कृति के विरुद्ध उठ खडे होने को कहते हैं। पर हम केवल निष्क्रियता की ओर ले जाने वाली बहस से ही संतोष प्राप्त करने के आदी हो गए हैं। प्रयोगऔर उपयोग से दूर भागते हैं और दोष डालते हैं व्रतों और नियमों पर। आश्चर्य यह है कि व्रत-नियम सद्कर्म में प्रवृत होने में तो झट बाधा बन जाते हैं, दुष्कर्म मेंलीन होने पर कहीं बाधा देते नजर नहीं आते।
पिछले कई वर्षों से जैन विद्वद् जनों के बीच एक गहरा द्वन्द चल रहा है। साधु के लिए ऊर्जा का उपयोग उचित है या अनुचित। इसमें बिजली की रोशनी,लाउडस्पीकर से लेकर वाहन आदि का उपयोग सभी शामिल हैं। ऐसे विषयों पर पहले तो स्पष्ट दो खेमे बने और उसके बाद कई समझौतेवादी खेमे पनप गए।किसी ने कहा विस्तृत क्षेत्र में धर्म के प्रचार के लिए यह आवश्यक है तो किसी ने कहा समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार नियमों परिवर्तन किए बिना धर्मही नष्ट हो जाएगा। कोई बोला कि असंख्य सूक्ष्म जीवों की हिंसा होने के कारण ऐसी सुविधाएं त्याज्य हैं तो किसी ने बताया कि शिथिलाचार का एक छोटा साछिद्र भी शीघ्र ही विशाल बना सब कुछ बहा ले जाता है। अनेकों नए पुराने दृष्टिकोणों पर पृष्टों बहस हुई।
इस बहस में अनेक प्रकार से आधुनिक विज्ञान की दुहाई दी गई। अनेक प्रकार से शास्त्रों और विज्ञान में सामंजस्य स्थापित किए गए। पर यह सब फिरउसी औचित्य देने न देने की भूमिका तक ही सिमटा रहा। न तो विज्ञान की सहायता से प्राचीन सिद्धान्तों को नए आयाम देने की चेष्टा हुई और न प्राचीन सिद्धान्तोंकी गहराई और व्यापकता के सहारे विज्ञान को नई दिशा देने के प्रयत्न हुए। सामान्य जन के जीवन मंे स्वस्थ सुधार का मसला तो यथावत् सबसे गौण ही बनारहा। कुछ लोग अवश्य ही वांछित दिशा में प्रयत्न कर रहे हैं। पर उनके एकाकी अभियानों को कौन महŸव या सहयोग देता है?
पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों (विद्युत, पेट्रोल, कोयला आदि) के उपयोग के विरोध और पक्ष में वर्षों बहस करने वाले तर्क वाचस्पतियों ने यह तो कहा कि इनसाधनों से असंख्य जीवों की हिंसा होती है (कैसे, यह निर्विवाद स्थापना नहीं कर सके) पर उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि इनसे पर्यावरण दूषित होता है और सूक्ष्मजीवों का हनन मात्र नहीं होता वरन समस्त प्राणि जगत का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। यदि वे यह दृष्टि कोण 20-30 वर्ष पहले प्रस्तुत करते, जो उनकेपास उपलब्ध ज्ञान संपदा में छुपा पडा है, तो आवश्यकताओं के उपयुक्त अहानिकर ऊर्जा स्रोतों की खोज तभी आरंभ हो सकती थी। कुछ ठोस कदम उठाए जातेतो हमारा समाज गैर-पारम्परिक ऊर्जा स्रोत विकसित करने और उपयोग करने के क्षेत्र में अग्रणी होता।
अब भी देर नहीं हुई। अब भी हम खोज नहीं तो उपयोग करने में तो आगे बढ ही सकते हैं। यदि हमारे विद्वद्जन और गुरुजन एक स्वर में कहें कि समाजको यथाशक्ति गैर पारम्परिक ऊर्जा का ही उपयोग करना चाहिए तो इस क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ सकता है। क्या हमारे गुरुजन यह नहीं कह सकते किवे उसी स्थान या साधन का उपयोग करेंगे जो सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, आदि गैर पारम्परिक ऊर्जा को प्रयोग में लाता हो ? फिर चाहे वह रोशनी के लिए हो, पंखों केलिए हो या लाउड स्पीकर के लिए या किसी भी अन्य कार्य के लिए। वैसी ऊर्जा से चलने वाले वाहन का उपयोग भी क्यों नहीं? (स्वयं गणधर गौतम ने अष्टापदयात्रा हेतु सौर ऊर्जा का उपयोग नहीं किया था क्या?)
जैन चिन्तकों तथा निराग्रह समाज सेवियों को मिलकर एक व्यापक कार्यक्रम बनाना चाहिए। सभी आस्थाओं के धर्मगुरुओें से सहयोग, समर्थन, वआशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। क्या एकता के लिए भारी भरकम प्रवचन देने वाले इस एक मुद्दे पर एक होकर अपनी कथनी को करनी बनाने की ओर कदम नहींउठाएंगे? इस दिशा में कुछ प्राथमिक बिन्दु प्रस्तुत हैं:
1. समस्त जैन स्थलों के संबंध में वर्तमान स्थिति संबंधी विस्तृत सूचनाएं संकलित की जाएं तथा उनके नियंत्रक संगठनों से सक्रिय सहयोग के लिए आग्रहकिया जाए।
2. ऐसे सभी स्थलों पर भूमि की उपलब्धि के अनुसार सघन उद्यान अथवा वन विकसित किए जाएं तथा उनके रख-रखाव का उचित प्रबंध किया जाए।वनस्पति संरक्षण व संवर्धन के अन्य प्रयास किए जाएं।
3. मंदिरों तथा तीर्थ स्थलों पर केवल आय के साधन बढ़ाने के लिए अथवा रख रखाव में आसानी के लिए निर्माण कार्यों पर सबकी सहमति से अंकुश लगायाजावे। यह ध्यान रखा जाये कि क्षेत्र में हरित स्थान तथा निर्मित स्थान का एक निश्चित अनुपात बना रहे।
4. वृक्ष-क्रूरता निवारण समितियां बनाई जावें। जिनका उद्देश्य केवल वृक्षों को कटने से बचाना ही नही अपितु उन्हें स्वस्थ रखना भी हो।
5. सभी जैन स्थलों पर ऊर्जा के लिये सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा अथवा वैसे अन्य स्रोतों की उपलब्धि के लिये सावधि योजना बनाई जाये। इस योजना काअन्तिम लक्ष्य पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों का सम्पूर्ण त्याग हो।
6. नसियों तथा दादाबाड़ियों को विशेष रूप से पर्यावरण शोध, अध्ययन, सूचना तथा प्रचार केन्द्रों के रूप में विकसित किया जाए। 1987 की एक सूची केअनुसार देश में दादाबाड़ियों की संख्या 311 से अधिक है। नसियां तो और भी अधिक होंगी। ऐसा व्यापक प्रसार संगठन बनाया जा सके तो विश्व के सभीपर्यावरण संगठन सहयोग व सहायता देने को तत्पर हो जाएंगे।
7. सभी आम्नाओं के आचार्यवर, मुनिवर आदि ऐसे कार्यक्रम के लिए अपने-अपने अनुयाइयों को प्रेरित करें। वे जैन जीवन शैली में निहित पर्यावरणसंरक्षण की बातों को उजागर करें। अपने-अपने संगठनों के माध्यम से वे यह निश्चित करें कि ऐसे कार्यक्रमों पर अमल होता है या नहीं। आवश्यक हो तो वे स्वयंनियम लेकर उदाहरण प्रस्तुत करें।
ऐसे किसी भी सुझाव या योजना का विरोध होना स्वाभाविक है। हमें उससे हतोत्साह नहीं होना चाहिए। वह विरोध तो ऐसे कार्यक्रमों में रह गई कमियों को दूरकरने का निमित्त बनता है। कुछ विरोधी ऐसे भी होंगे जो योजना को जन्म से पहले ही मार देना चाहेंगे। वे लोग अपनी समझ में यह अकाट्य प्रमाण प्रस्तुतकरेंगे कि ऐसे काम करना पापकर्म में, ‘आरंभ’में या संसार में लिप्त होने का निमित्त है। इस कारण कल्पता नहीं है, विशेष कर साधु समाज के लिए। ऐसेपलायनवादी लोगों के कहने से क्या हम समस्त जीव जगत को आसमान में बरसते तेज़ाब में गल कर नष्ट होने के लिए छोड सकते हैं ? हाथ पर हाथ धरे देखतेरह सकते हैं कि ओज़ोन पर्त में छिद्र हो जाने पर कैंसर से आदमी कैसे तडप-तडप कर मरते है ? मौन हो सह सकते हैं कि हवा में घुलता ज़हर कैसे तिलतिल करसभी प्रकार के जीवों का नाश करता है ? यदि हम अब भी नहीं जागे तो हमारी संतति हमें कोसेगी।
विनाश से बचने के उपाय खोजने की प्रवृति का पापकर्म या सांसारिक कर्म कहकर त्याज्य बताने वालों की इस जमात की तनिक जांच करें तो पाएंगें किइनमें से अधिकांश केवल सुविधा भोगी हैं। अपनी सुविधा के लिए तो कोई भी प्रवृति चुपके से या कोई औचित्य देकर स्वीकार करते रहेंगे। पर जब जनकल्याणकी कोई बात होगी तो निवृति और आत्म कल्याण की तुरुही बजाने लगेंगे। क्या वे यह स्थापित करना चाहते हैं कि श्रावक से लेकर आचार्य तक प्रत्येक व्यक्तिआत्मबुद्धि के उस स्तर पर पहुंच गया है कि प्राणि जगत के संरक्षण की चेष्ठा करना उसके लिए ‘आरंभ’ का निमित्त बनेगा ? सच तो यह है कि जो आत्मशुद्धि केउस स्तर पर पहुंच गए हैं वे ऐसे विरोध के लिए समय और अवसर नहीं पाते।
ऐसी योजनाओं को ऐसे विरोधों से बचाने के लिए उसके दो पक्ष कर देने चाहिये। एक प्रयोग पक्ष और दूसरा सिद्धान्त पक्ष। प्रयोग पक्ष का तत्काल आरंभकर देना चाहिए। सिद्धांत पक्ष के लिए ऐसे चर्चाधर्मी लोगों की बहस चालू करा देनी चाहिये। ऐसी बहस में से पलायनवादी और असंबद्ध बातों को छोड बाकी बातेंप्रयोग पक्ष को जांच कर स्वीकार कर लेनी चाहिए। प्रत्येक संस्था को इस कार्य में आगे बढ सहयोग करना चाहिए। प्रत्येक जैन पत्र-पत्रिका को ऐसी योजनाओं काप्रचार कर जनमानस को सहयोग के लिए तैयार करना चाहिए। हमें यह नही भूलना चाहिए कि हमारे प्रयत्नों से देश-विदेश के अन्य सभी धार्मिक व अन्यसंगठनों को इस ओर कदम उठाने की प्रेरणा मिलेगी।
आज समस्त प्राणि जगत पर संकट के जो बादल मंडरा रहे हैं उन्हें दूर करने का मार्ग जैन जीवन शैली में सहज उपलब्ध है। यदि जैन आगे बढ़करउदाहरण प्रस्तुत नहीं करेंगे तो आने वाली पीढियां धिक्कारंेगी। वे कहेंगी कि समाधान पास होते हुए भी अहिंसक कहलाने वाला समुदाय प्रमाद्वश प्राणि जगतको विनाश की विभीषिका से परे ले जाने के कर्तव्य से विमुख हो गया। क्या हम और आप यह दोष अपने सर लेना चाहेंगे ?
पर्यावरणीय सार-संक्षेप
क्या हो रहा है: 1. पैट्रोल, कोयला, लकड़ी आदि ईंधन (फॉसिल-फ्यूअल) की खपत अति तव्रि गति से बढती जा रही है। 2. पेडों और वनों को अंधाधुंध काटा जा रहाहै। 3. ठण्डा करने की प्रणालियों से हानिकारक रसायन वायुमंडल में बेरोक टोक छोडे जा रहें है (रेफ्रिजरेशन, एयर कंडीशनर आदि) 4. सुगंध की स्प्रे तथा आगबुझाने के फोम के साथ भी वहीं हानिकारक रसायन छोडे जा रहे हैं। 5. औद्योगिक प्रदूषण, विकास के नाम पर, निरन्तर बढ रहा है। 6.रासायनिक खाद वकीटनाशकों से प्रदूषण भूमि, जल तथा वायु तीनों में फैल रहा है। 7. गलती बर्फ, सड़ते गोबर, दलदल आदि से मीथेन गैस बढती मात्रा में निकल रही है। आदि-आदि।
क्या होगाः 1. पृथ्वी का औसत तापमान बढ जाएगा। 2050 तक 4.50 बढ जाने का अनुमान है । 2. भाप बन जाने से पीने के पानी की कमी होगी। 3. तेज़ाबी वर्षाहोगी। 4. ओजोन पर्त में छेद हो जाने के कारण सूर्य की किरने अपने नाशक रूप में धरती पर पड़ेंगी। 5. ध्रुवों तथा पर्वत मालाओं पर जमी बर्फ पिघलने लगेगी।6. समुद्र की सतह ऊंची उठेगी और अनेक तटीय क्षेत्र डूब जाएंगे। 7. मौसम में तेज बदलाव के कारण कहीं वर्षा अधिक होगी, कहीं सूखा अधिक पड़ेगा और कहींतेज तूफान आने लगेंगे। 8. उपजाऊ भूमि तथा पीने के पानी में नमक की मात्रा बढेगी जिससे फसल और मवेशी दोनों नष्ट होने लगेंगे। 9. नए व अधिक हानिकरकीटादि उत्पन्न होंगे। 10. नई बीमारियां फैलेगी।
क्या करना चाहिएः 1. पारंपरिक ईंधन जलाने में किफायत के बहुमुखी उपाय करने चाहिए। 2. सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, गोबर गैस आदि के उपयोग को व्यापककरना चाहिए। 3. रेफ्रिजरेशन रसायन (क्लोरो-फ्लोरेा-कारबन) का उत्पादन ही बन्द कर देना चाहिए। 4. वन विनाश पर प्रभावी रोक लगानी चाहिए। 5. पेड़लगाने के सघन अभियान चलाने चाहिए। 6. बंजर भूमि पर खेती के उपाय करने चाहिए। 7. रासायनिक खादों को कम कर प्राकृतिक खादों का उपयोग बढ़ानाचाहिए। 8. विकास की विकृत परिभाषा को बदल बढती खपत की संस्कृति के विकास को रोकना चाहिए। 9. शाकाहार को प्रोत्साहन देना चाहिए। 10. बढतीआबादी पर रोक लगानी चाहिए। 11. हर स्तर व क्षेत्र की शिक्षा में पर्यावरण संबंधी अघ्ययन का समावेश करना चाहिए।
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