लेखक: ज्योति कुमार कोठारी
महान विद्वान खरतर गच्छीय महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि ने साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व सम्वत १६१८ (ई. सन 1561) में परमात्म भक्ति स्वरुप सतरह भेदी पूजा की रचना की. श्री साधुकीर्ति गणि अकबर प्रतिबोधक चौथे दादा श्री जिन चंद्र सूरी के विद्यागुरु थे एवं उन्होंने ही दादा साहब को अकबर से मिलवाया था. आप संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओँ के साथ संगीत शास्त्र में भी निष्णात थे. वह युग भक्तियुग था एवं भारतीय शास्त्रीय संगीत भी अपने शीर्ष अवस्था पर था. संत हरिदास, बैजू बावरा, तानसेन आदि दिग्गज संगीतज्ञों की उपस्थिति उस युग को संगीत क्षेत्र में विशिष्टता प्रदान कर रही थी.
महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजामें जहाँ जैन आगमों एवं शास्त्रों की बारीकियों की झलक मिलती है वहीँ भक्ति रास के साथ श्रृंगार रसात्मक रचना का रसास्वादन भी होता है. इस पूजा में भारतीय शास्त्रीय संगीत (मार्ग संगीत) के विभिन्न प्रकार के राग-रागिनियों एवं तालों का प्रयोग हुआ है. नृत्य, गीत, एवं वजित्र तीनों विधाओं का समावेश भी इस पूजा में देखने को मिलता है.
मध्य युग में अन्य भारतीय शास्त्रों के समान ही जैन शास्त्रों की भी देशी भाषाओँ में रचना प्रारम्भ हुई.इससे पूर्व अधिकांश रचनाएँ संस्कृत, प्राकृत, एवं अपभ्रंश भाषाओँ में पाई जाती है. इस युग में अनेक भक्तिरस के काव्योंकी रचनाएँ हुई जिसमे रास, भजन एवं पूजाओं की प्रमुखता है. महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा संभवतः देशी भाषा में रचित पहली पूजा है. इसके बाद श्री सकल चंद्र गाणी, श्री वीर विजय जी, आदि ने भी सत्रह भेदी पूजा की रचना की. इसके अतिरिक्त अन्य अनेक महापुरुषों ने भी देशी भाषा में अनेक प्रकार की पूजाओं की रचना कर जनमानस को अर्हन्त भक्ति की ओर प्रेरित किया.
भक्ति कालीन रचनाओं में महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अपना विशिष्ट स्थान है. यद्यपि सत्रह भेदी पूजा श्वेताम्बर जैन समाज आज भी बहु प्रचलित है तथापि अर्वाचीन रचनाओं की लोकप्रियता एवं गच्छाग्रह के कारण प्राचीन पूजा आज लोकप्रिय नहीं रही. देश के कुछ ही भागों में अब यह पूजा प्रचलित है, विशेषकर पूर्वी भारत में. बंगाल के अजीमगंज, जियागंज, कोलकाता में यह पूजा आज भी बहुत लोकप्रिय है और हर बड़े आयोजनों में यह पूजा उल्लासपूर्वक पढाई जाती है. बीकानेर एवं जयपुर में भी अनेक स्थानों में ध्वजारोहण आदि अवसरों पर यह पूजा आज भी करवाने की प्रथा है.
मेरा मूलस्थान अजीमगंज होने के कारण बचपन से ही यह पूजा सुनता आया हूँ, इसलिए इस पूजा के प्रति विशेष लगाव भी रहा. कुछ वर्ष पूर्व महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अर्थ करने का विचार आया और प्रयास प्रारम्भ किया। परन्तु इसमें एक बड़ी कठिनाई थी, यह पूजा किसी एक भाषा में निवद्ध नहीं है. जैन साधु एक स्थान पर नहीं रहते थे देश देशांतर विहार के कारण भिन्न भिन्न स्थानों की भाषा एवं बोलियों से उनका परिचय होता था. वे प्रायः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओँ के विद्वान तो होते ही थे. नबाबों, बादशाहों के परिचय के कारण फ़ारसी, अरबी, उर्दू आदि भाषाओँ का भी उन्हें ज्ञान होता था. इस कारण काव्य रचना में वे एक साथ अनेक भाषाओँ का प्रयोग करते रहते थे.
महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा भी इसका अपवाद नहीं है. इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओँ के साथ नरु गुर्जर एवं ब्रज भाषा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है. राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि मुख्य रूप से आपका विचरण क्षेत्र रहा, अतः उन स्थानों की तत्कालीन भाषा व बोलियों का प्रयोग उनकी रचना में बारम्बार देखने को मिलता है. अनेक शब्द अब अप्रचलित हो गए हैं और उनका अर्थ किसी Dictionary में नहीं मिलता. अनेक प्रयास एवं विद्वानों व भाषाविदों के साहचर्य से काम आगे बढ़ा परन्तु पूरी सफलता नहीं मिली.
फिर भी जितना हो सका प्रयास करके इस प्राचीन पूजा के अर्थ को जनमानस में प्रकाशित करने के उद्देश्य से एक कोशियश कर रहा हूँ. मुझे विश्वास है की सुज्ञजनों की दृष्टि इस ओर आकर्षित होगी और इस का सही अर्थ सामने आ पायेगा.
यहाँ पर पहली न्हवण पूजा का अर्थ करने का प्रयास किया गया है. आगे अन्य पूजाओं के अर्थ किये जायेंगे. विद्वद्जनों से करवद्ध निवेदन है की अपने बहुमूल्य सुझाव देकर इस कार्य में सहयोग करने की कृपा करें.
[दूहा]
मूल-- भाव भले भगवंत नी, पूजा सतर प्रकार II
परसिध कीधी द्रोपदी, अंग छठे अधिकार II १ II
अर्थ: शुभ भाव से (अर्हन्त) भगवंत की सत्रह भेदी पूजा करनी है, जिसे महासती द्रौपदी ने प्रसिद्द किया था एवं जिसका अधिकार छठे अंग (आगम) ज्ञाता धर्मकथा सूत्र में पाया जाता है.
[राग सरपरदो]
जोति सकल जग जागति ए सरसति समरि सुभंदि II
सतर सुविधि पूजा तणी, पभणिसुं परमाणंदि II १ II
अर्थ: सम्पूर्ण जगत में जिनकी ज्योति प्रसरित है ऐसी बाग्देवी सरस्वती का स्मरण कर सत्रह भेदी पूजा की विधि अच्छी तरह से बता रहे हैं, जिसके पढ़ने से परमानन्द की प्राप्ति होती है.
[गाहा]
न्हवण-विलेवण-वत्थजुग, गंधारूहणं च पुप्फरोहणयं II
मालारूहणं वण्णय, चुन्न- पडागाय आभरणे II १ II
मालकलावं सुघरं, पुप्फपगरं च अट्ठ मंगलयं II
धुवूक्खेवो गीअं, नट्टम वज्जं तहा भणियं II २ II
१. स्नान २. विलेपन ३. वस्त्रयुगल ४. गंध (वास चूर्ण) ५. पुष्प ६. मालारोहण ७. वर्ण (अंगरचना) ८. चूर्ण (गंधवटी) ९. ध्वज १०. आभरण ११. फूलघर १२. पुष्प वृष्टि १३. अष्ट मंगल १४. धुप १५. गीत १६. नृत्य एवं १७. वाजित्र इस प्रकार ये सत्रह पुआयें शास्त्रों में वर्णित है.
[दुहा]
सतर भेद पूजा पवर, ज्ञाता अंग मझार II
द्रुपदसुता द्रोपदी परें, करिये विधि विस्तार II १ II
पूजाओं में श्रेष्ठ सत्रह भेदी पूजा का वर्णन ज्ञाता धर्मकथा नामक अंगसूत्र में किया गया है. जिसप्रकार द्रुपद महाराजा की पुत्री द्रौपदी ने यह पूजा की थी उसी प्रकार विस्तृत विधि से यह पूजा करनी चाहिए.
अथ प्रथम न्हवण पूजा
[राग देशाख]
पूर्व मुख सावनं, करि दसन पावनं,
अहत धोती धरी, उचित मानी I१I
विहित मुख कोश के, खीरगंधोदके,
सुभृत मणि कलश करि, विविध वानी I२I
नमिवि जिनपुंगवं, लोम हत्थे नवं,
मार्जनं करिय जिन वारी वारी I३I
भणिय कुसुमांजली, कलश विधि मन रली,
न्हवति जिन इंद्र जिम, तिम अगारी II४II
पूर्व दिशा में मुँह कर स्नान कर, दांतों को साफकर (पवित्र कर), उचित मान (size) की अखंड धोती पहन कर (१) सही तरीके से मुखकोष बांध कर विविध प्रकार के मणिरत्नों के कलश दूध और गंधोदक से भरके (२) जिनेश्वरदेव को नमन कर, नवीन मोरपंखी से परमात्मा को बारम्बार मार्जन कर (३) कुसुमांजलि पढ़कर मन के भावोल्लास से कलश विधि करते हुए जिस प्रकार देवराज इंद्र ने परमात्मा के (जन्म-अवसर) पर स्नान करवाया था उसी प्रकार श्रावक/ श्राविका भी उन्हें स्नान करवाते हैं (४).
[दूहा]
पहिली पूजा साचवे, श्रावक शुभ परिणाम II
शुचि पखाल तनु जिन तणी, करे सुकृत हितकाम II १ II
परमानंद पीयूष रस, न्हवण मुगति सोपान II
धरम रूप तरु सींचवा, जलधर धार समान II २ II
श्रावक शुभ परिणाम से पहली (न्हवण) पूजा करता है. पवित्र पक्षाल जल जिनेश्वरदेव के शरीर में डालते हुए सुकृत एवं हित की कामना करता है (१). परमात्मा का न्हवण (स्नान) परमानन्द प्राप्त करानेवाले अमृतरस के सामान और मुक्तिपुरी की सीढ़ी के समान है. यह जलधारा धर्मरूप वृक्ष को सींचने में वर्षा की धरा के समान है. (२)
[राग- सारंग तथा मल्हार]
पूजा सतर प्रकारी,
सुनियो रे मेरे जिनवर की II
परमानंद तणि अति छल्यो रे सुधारस,
तपत बूझी मेरे तन की हो II पूo II १ II
प्रभुकुं विलोकि नमि जतन प्रमारजित,
करति पखाल शुचिधार विनकी हो II
न्हवण प्रथम निज वृजिन पुलावत,
पंककुं वरष जैसे घन की हो II पूo II २ II
तरणि तारण भव सिंधु तरण की,
मंजरी संपद फल वरधन की II
शिवपुर पंथ दिखावण दीपी,
धूमरी आपद वेल मर्दन की हो II पूo II ३ II
सकल कुशल रंग मिल्यो रे सुमति
संग, जागी सुदिशा शुभ मेरे दिन की II
कहे साधुकीरति सारंग भरि करतां,
आस फली मोहि मन की हो II पूo II ४ II
जिनेश्वरदेव की यह सत्रह प्रकारी पूजा है. इसे सुनो. इस पूजा में परमानन्द का ऐसा अत्यंत अमृतरस छलक रहा है जिससे मेरे शरीर की तपन (गर्मी) बुझ गई (१). प्रभु के दर्शन-नमन कर, यत्न पूर्वक प्रमार्जन कर, (श्रावक) पवित्र जलधारा से परमात्मा का प्रक्षालन करता है. प्रथम न्हवण पूजा करके अपने पापों-दुःखों को ऐसे नष्ट करता है, जैसे भरी वर्षा से कीचड धूल जाते हैं (२). भवरुपी समुद्र से तरने के लिए (परमात्मा की पूजा) जहाज के समान एवं (मोक्ष) सम्पदा रूपी फल के लिए मंजरी अर्थात फूल के समान, मोक्ष का पंथ दिखाने में दीपक के समान एवं आपदा रूपी बेल को नष्ट करने में दांतली के समान यह पूजा है (३). (प्रभु पूजा से) सभी कुशल मंगल के रंग सुमति अर्थात सुबुद्धि के साथ मिल गए और मेरी शुभ दशा जाग गई है. "सारंग"राग में रचना करते हुए साधुकीर्ति कहते हैं की मेरे मन की सभी आशा फलित हो गई.
सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 2
सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 2
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