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सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 1

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लेखक: ज्योति कुमार कोठारी 

महान विद्वान खरतर गच्छीय महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि ने साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व सम्वत १६१८ (ई. सन 1561) में परमात्म भक्ति स्वरुप सतरह भेदी पूजा की रचना की. श्री साधुकीर्ति गणि अकबर प्रतिबोधक चौथे दादा श्री जिन चंद्र सूरी के विद्यागुरु थे एवं उन्होंने ही दादा साहब को अकबर से मिलवाया था. आप संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओँ के साथ संगीत शास्त्र में भी निष्णात थे. वह युग भक्तियुग था एवं भारतीय शास्त्रीय संगीत भी अपने शीर्ष अवस्था पर था. संत हरिदास, बैजू बावरा, तानसेन आदि दिग्गज संगीतज्ञों की उपस्थिति उस युग को संगीत क्षेत्र में विशिष्टता प्रदान कर रही थी. 

महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजामें जहाँ जैन आगमों एवं शास्त्रों की बारीकियों की झलक मिलती है वहीँ भक्ति रास के साथ श्रृंगार रसात्मक रचना का रसास्वादन भी होता है. इस पूजा में भारतीय शास्त्रीय संगीत (मार्ग संगीत) के विभिन्न प्रकार के राग-रागिनियों एवं तालों का प्रयोग हुआ है. नृत्य, गीत, एवं वजित्र  तीनों विधाओं का समावेश भी इस पूजा में देखने को मिलता है. 




मध्य युग में अन्य भारतीय शास्त्रों के समान ही जैन शास्त्रों की भी देशी भाषाओँ में रचना प्रारम्भ हुई.इससे पूर्व अधिकांश रचनाएँ संस्कृत, प्राकृत, एवं अपभ्रंश भाषाओँ में पाई जाती है. इस युग में अनेक भक्तिरस के काव्योंकी रचनाएँ हुई जिसमे रास, भजन एवं पूजाओं की प्रमुखता है. महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा संभवतः देशी भाषा में रचित पहली पूजा है. इसके बाद श्री सकल चंद्र  गाणी, श्री वीर विजय जी, आदि ने भी सत्रह भेदी पूजा की रचना की. इसके अतिरिक्त अन्य अनेक महापुरुषों ने भी देशी भाषा में अनेक प्रकार की पूजाओं की रचना कर जनमानस को अर्हन्त भक्ति की ओर प्रेरित किया.    

भक्ति कालीन रचनाओं में महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अपना विशिष्ट स्थान है. यद्यपि सत्रह भेदी पूजा श्वेताम्बर जैन समाज आज भी बहु प्रचलित है तथापि अर्वाचीन रचनाओं की लोकप्रियता एवं गच्छाग्रह के कारण प्राचीन पूजा आज लोकप्रिय नहीं रही. देश के कुछ ही भागों में अब यह पूजा प्रचलित है, विशेषकर पूर्वी भारत में. बंगाल के अजीमगंज, जियागंज, कोलकाता में यह पूजा आज भी बहुत लोकप्रिय है और हर बड़े आयोजनों में यह पूजा उल्लासपूर्वक पढाई जाती है. बीकानेर एवं जयपुर में भी अनेक स्थानों में  ध्वजारोहण आदि अवसरों पर यह पूजा आज भी करवाने की प्रथा है. 

मेरा मूलस्थान अजीमगंज होने के कारण बचपन से ही यह पूजा सुनता आया हूँ, इसलिए इस पूजा के प्रति विशेष लगाव भी रहा. कुछ वर्ष पूर्व महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अर्थ करने का विचार आया और प्रयास प्रारम्भ किया। परन्तु इसमें एक बड़ी कठिनाई थी, यह पूजा किसी एक भाषा में निवद्ध नहीं है. जैन साधु एक स्थान पर नहीं रहते थे देश देशांतर विहार के कारण भिन्न भिन्न स्थानों की भाषा एवं बोलियों से उनका परिचय होता था. वे प्रायः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओँ के विद्वान तो होते ही थे. नबाबों, बादशाहों के परिचय के कारण फ़ारसी, अरबी, उर्दू आदि भाषाओँ का भी उन्हें ज्ञान होता था. इस कारण काव्य रचना में वे एक साथ अनेक भाषाओँ का प्रयोग करते रहते थे. 

महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा भी इसका अपवाद नहीं है. इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओँ के साथ नरु गुर्जर एवं ब्रज भाषा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है.  राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि मुख्य रूप से  आपका विचरण क्षेत्र रहा, अतः उन स्थानों की तत्कालीन भाषा व बोलियों का प्रयोग उनकी रचना में बारम्बार देखने को मिलता है. अनेक शब्द अब अप्रचलित हो गए हैं और उनका अर्थ किसी Dictionary में नहीं मिलता. अनेक प्रयास एवं विद्वानों व भाषाविदों के साहचर्य से काम आगे बढ़ा परन्तु पूरी सफलता नहीं मिली. 

फिर भी जितना हो सका प्रयास करके इस प्राचीन पूजा के अर्थ को जनमानस में प्रकाशित करने के उद्देश्य से एक कोशियश कर रहा हूँ. मुझे विश्वास है की सुज्ञजनों की दृष्टि इस ओर आकर्षित होगी और इस का सही अर्थ सामने आ पायेगा.  

यहाँ पर पहली न्हवण पूजा का अर्थ करने का प्रयास किया गया है. आगे अन्य पूजाओं के अर्थ किये जायेंगे. विद्वद्जनों से करवद्ध निवेदन है की अपने बहुमूल्य सुझाव देकर इस कार्य में सहयोग करने की कृपा करें. 


महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अर्थ 
[दूहा]
मूल-- भाव भले भगवंत नी, पूजा सतर प्रकार II
परसिध कीधी द्रोपदी, अंग छठे अधिकार II १ II


अर्थ: शुभ भाव से (अर्हन्त) भगवंत की सत्रह भेदी पूजा करनी है, जिसे महासती द्रौपदी ने प्रसिद्द किया था एवं जिसका अधिकार छठे अंग (आगम) ज्ञाता धर्मकथा सूत्र में पाया जाता है.  
[राग सरपरदो]
जोति सकल जग जागति ए सरसति समरि सुभंदि II
सतर सुविधि पूजा तणी, पभणिसुं परमाणंदि  II १ II


अर्थ: सम्पूर्ण जगत में जिनकी ज्योति प्रसरित है ऐसी बाग्देवी सरस्वती का स्मरण कर सत्रह भेदी पूजा की विधि अच्छी तरह से बता रहे हैं, जिसके पढ़ने से परमानन्द की प्राप्ति होती है.  
[गाहा]
न्हवण-विलेवण-वत्थजुग, गंधारूहणं च पुप्फरोहणयं II
मालारूहणं वण्णय, चुन्न- पडागाय आभरणे II १ II
मालकलावं सुघरं, पुप्फपगरं च अट्ठ मंगलयं  II
धुवूक्खेवो गीअं, नट्टम वज्जं तहा भणियं II २ II


१. स्नान २. विलेपन ३. वस्त्रयुगल ४. गंध (वास चूर्ण) ५. पुष्प ६. मालारोहण ७. वर्ण (अंगरचना) ८. चूर्ण (गंधवटी) ९. ध्वज १०. आभरण ११. फूलघर १२. पुष्प वृष्टि १३. अष्ट मंगल १४. धुप १५. गीत १६. नृत्य एवं १७. वाजित्र इस प्रकार ये सत्रह पुआयें शास्त्रों में वर्णित है.  
[दुहा]
सतर भेद पूजा पवर, ज्ञाता अंग मझार II
द्रुपदसुता द्रोपदी परें, करिये विधि विस्तार II १ II


पूजाओं में श्रेष्ठ सत्रह भेदी पूजा का वर्णन ज्ञाता धर्मकथा नामक अंगसूत्र में किया गया है. जिसप्रकार द्रुपद महाराजा की पुत्री द्रौपदी ने यह पूजा की थी उसी प्रकार विस्तृत विधि से यह पूजा करनी चाहिए. 

अथ प्रथम न्हवण पूजा
[राग देशाख]
पूर्व मुख सावनं, करि दसन पावनं,
अहत धोती धरी, उचित मानी I१I
विहित मुख कोश के, खीरगंधोदके,
सुभृत मणि कलश करि, विविध वानी I२I
नमिवि जिनपुंगवं, लोम हत्थे नवं,
मार्जनं करिय जिन वारी वारी I३I
भणिय कुसुमांजली, कलश विधि मन रली,
न्हवति जिन इंद्र जिम, तिम अगारी II४II


पूर्व दिशा में मुँह कर स्नान कर, दांतों को साफकर (पवित्र कर), उचित मान (size) की अखंड धोती पहन कर (१) सही तरीके से मुखकोष बांध कर विविध प्रकार के मणिरत्नों के कलश दूध और गंधोदक से भरके (२) जिनेश्वरदेव को नमन कर, नवीन मोरपंखी से परमात्मा को बारम्बार मार्जन कर (३) कुसुमांजलि पढ़कर मन के भावोल्लास से कलश विधि करते हुए जिस प्रकार देवराज इंद्र ने परमात्मा के (जन्म-अवसर) पर स्नान करवाया था उसी प्रकार श्रावक/ श्राविका भी उन्हें स्नान करवाते हैं (४).     
[दूहा]
पहिली पूजा साचवे, श्रावक शुभ परिणाम II
शुचि पखाल तनु जिन तणी, करे सुकृत हितकाम II १ II
परमानंद पीयूष रस, न्हवण मुगति सोपान II
धरम रूप तरु सींचवा, जलधर धार समान II २ II


श्रावक शुभ परिणाम से पहली (न्हवण) पूजा करता है. पवित्र पक्षाल जल जिनेश्वरदेव के शरीर में डालते हुए सुकृत एवं हित की कामना करता है (१). परमात्मा का न्हवण (स्नान) परमानन्द  प्राप्त करानेवाले अमृतरस के सामान और मुक्तिपुरी की सीढ़ी के समान है. यह जलधारा धर्मरूप वृक्ष को सींचने में वर्षा की धरा के समान है. (२)   
[राग- सारंग तथा मल्हार]
पूजा सतर प्रकारी,
सुनियो रे मेरे जिनवर की II
परमानंद तणि अति छल्यो रे सुधारस,
तपत बूझी मेरे तन की हो II पूo II १ II
प्रभुकुं विलोकि नमि जतन प्रमारजित,
करति पखाल शुचिधार विनकी हो II
न्हवण प्रथम निज वृजिन पुलावत,
पंककुं वरष जैसे घन की हो II पूo II २ II
 तरणि तार  भव सिंधु तरण की,
मंजरी संपद फल वरधन की II
शिवपुर पंथ दिखावण दीपी,
धूमरी आपद वेल मर्दन की हो II पूo II ३ II
सकल कुशल रंग मिल्यो रे सुमति
संग, जागी सुदिशा शुभ मेरे दिन की II
कहे साधुकीरति सारंग भरि करतां,
आस फली मोहि मन की हो II पूo II ४ II

जिनेश्वरदेव की यह सत्रह प्रकारी पूजा है. इसे सुनो. इस पूजा में परमानन्द का ऐसा अत्यंत अमृतरस छलक रहा है जिससे मेरे शरीर की तपन (गर्मी) बुझ गई (१). प्रभु के दर्शन-नमन कर, यत्न पूर्वक प्रमार्जन कर, (श्रावक) पवित्र जलधारा से परमात्मा का प्रक्षालन करता है. प्रथम न्हवण पूजा करके अपने पापों-दुःखों को ऐसे नष्ट करता है, जैसे भरी वर्षा से कीचड धूल जाते हैं (२). भवरुपी समुद्र से तरने के लिए (परमात्मा की पूजा) जहाज के समान एवं (मोक्ष) सम्पदा रूपी फल के लिए मंजरी अर्थात फूल के समान, मोक्ष का पंथ दिखाने में दीपक के समान एवं आपदा रूपी बेल को नष्ट करने में दांतली के समान यह पूजा है (३). (प्रभु पूजा से) सभी कुशल मंगल के रंग सुमति अर्थात सुबुद्धि के साथ मिल गए और मेरी शुभ दशा जाग गई है. "सारंग"राग में रचना करते हुए साधुकीर्ति कहते हैं की मेरे मन की सभी आशा फलित हो गई. 

   सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 2 

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सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 2

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अनुवादक : ज्योति कुमार कोठारी 

सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग १ में पहली न्हवण पूजा का अर्थ प्रकाशित किया था, अब इसी क्रम में भाग २ के अंतर्गत दूसरी विलेपन एवं तीसरी वस्त्रयुगल पूजा के भावार्थ करने का प्रयास कर रहा हूँ.  


अथ द्वितीय विलेपन पूजा
[राग-रामगिरि]
गात्र लूहे जिन मनरंगसुं हो देवा l गाo II
सखरी सुधूपित वाससुं हांरे देवा वाससुं II
गंध कसायसुं मेलीयें, नंदन चंदन चंद मेलीयें रे देवा  II नंo II
मांहे मृगमद कुंकुम भेलीये, कर लीये रयणपिंगाणी कचोलियें I१ I
पग जानु कर खंधे सिरें रे, भाल कंठ उर उदरंतरे II
दुख हरे हांरे देवा सुख करे, तिलक नवंगि अंग कीजिये I२I
दूजी पूजा अनुसरे, हरि विरचे जिम सुरगिरे II
तिम करे जिणि परि जन मन रंजीये II३II

अर्थ: परमात्मा की अंगलुंछ्ना अर्थात स्नान के बाद शरीर को पोंछने में ही मन रंग गया है. सुगन्धित चूर्ण (वासक्षेप) को धूपित कर उसमे गंध, कषाय, चन्दन आदि मिला कर, (उसे और अधिक सुगन्धित करने हेतु) उसमे कस्तूरी एवं कुमकुम मिला कर स्वर्ण-रत्न जड़ित कटोरी में भर हाथ में लेकर (१) (जिन प्रतिमा के) चरण, जानु, हाथ, कंधे, मस्तक, ललाट, कंठ, नाभि इन नव अंगों में तिलक करना है. (यह तिलक) दुःख हरनेवाला एवं सुख करनेवाला है (२). जिस प्रकार मेरुपर्वत (सुरगिरि) पर इंद्र ने (परमात्मा के शरीर) पर विलेपन किया था उसी प्रकार दूसरी पूजा में विलेपन करते हैं. ऐसा करके जन मन हर्षित होता है.  
[राग-ललित दुहा]
करहुं विलेपन सुखसदन, श्रीजिनचंद शरीर II
तिलक नवे अंग पूजतां, लहे भवोदधि तीर II १ II
मिटे ताप तसु देहको, परम शिशिरता संग II
चित्त खेद सवी उपसमे, सुखम समरसी रंग II २ II

अर्थ: सभी सुख के आवास रूप जिनेश्वर देव के शरीर में मैं विलेपन करता हूँ. नव अंगों में तिलक करते हुए भवसागर का किनारा मिल जाता है (१). विलेपन से देह के समस्त ताप मिट  और परम शिशिरता (ठंडक) प्राप्त होती है. मन के सभी खेद उपशांत हो जाते हैं और सुख से प्रभु स्मरण होता रहता है.  
[राग - वेलाउल]
विलेपन कीजे जिनवर अंगे II जिनवर अंग सुगंधे II विo  II
कुंकुम चंदन मृगमद यक्षकर्द्दम, अगर मिश्रित मनरंगे II विo II १ II
पग जानू कर खंध सिर, भाल कंठ उर उदरंतर संगे II
विलुपित अघ मेरो करत विलेपन, तपत बूझति जिम अंगे II विo II २ II
नव अंग नव नव तिलक करत ही, मिलती नवे निधि चंगे II
कहै साधु तनु शुचि करयउ सुललित पूजा जैसे गंगतरंगे II विo II ३ II

अर्थ: जिनवर देव के अंगों में विलेपन कीजिये. जिनवर का अंग सुगन्धित है. कुंकुम, चन्दन, कस्तूरी, यक्षकर्दम (कपूर, अगर, कस्तूरी, कंकोल आदि के योग से बननेवाला एक प्राचीन अंगराग), अगर आदि सुगन्धित द्रव्यों को मिला कर (१) चरण, जानु, हाथ, कंधे, मस्तक, ललाट, कंठ, नाभि (इन नव अंगों) में विलेपन करते हुए मेरे पाप विलोपित होते हैं जैसे (चंदनादि के विलेपन से) शरीर के अंगों का दाह (तपन) मिट जाता है(२). नव अंगों में नए नए अथवा नौ नौ तिलक करने से सुन्दर नव निधि की प्राप्ति होती है. यहाँ साधु (कीर्ति) कहते हैं की जैसे गंगा की तरंग शरीर को पवित्र करता है वैसे ही यह सुन्दर पूजा भी पवित्र करती है (३).    

अथ तृतीय वस्त्र-युगल पूजा
[दुहा]
वसन युगल उज्जवल विमल, आरोपे जिन अंग II
लाभ ज्ञान दर्शन लहे, पूजा तृतीय प्रसंग II १ II

तीसरी पूजा में उज्वल मलरहित वस्त्रयुगल (कपडे का जोड़ा) जिनवर के अंग पर आरोपित करनेवाले को ज्ञान एवं दर्शन का लाभ होता है. (जैसे वस्त्र युगल होता है उसी प्रकार ज्ञान-दर्शन का भी युगल है) 
[राग वैराडी]
कमल कोमलघनं, चन्दनं चर्चितं, सुगंध गंधे अधिवासिया ए II
कनकमंडित हये, लाल पल्लव शुचि, वसन जुग कंति अतिवासिया ए I१I
जिनप उत्तम अंगे, सुविधि शक्रो यथा, करिय पहिरावणी ढोइये ए II
पाप लुहण अंगे लुहणूं  देवने, वस्त्र युग पूज मल धोइये ए II २ II

चन्दन लगे हुए एवं सुगंध से अधिवासित कमलपत्र के समान कोमल वस्त्र (परमात्मा को पहरने के लिए) वो कैसा है? जिसमे लाल रंग का सुन्दर पल्लू है और स्वर्ण से मबंदित है अर्थात सोने का काम किया हुआ है, ऐसा अत्यंत सुगन्धित पवित्र वस्त्र(१). जिनवर के उत्तम अंगों में शक्रेन्द्र (प्रथम सौधर्म देवलोक के अधिपति इंद्र) के जैसे शुद्ध विधि पूर्वक यह वस्त्र पूजा करनी है. वस्त्र से परमात्मा के अंग का लुंच्छन करने से अपने पाप भी पूंछ जाते हैं, इसलिए वस्त्र युगल से पूजा कर अपने (पापरूपी) मल को धोना है(२).  
 [राग वैराडी]
देव दूष्य जुग पूजा बन्यो हे जगत गुरु,
देव दूष् हर अब इतनो मागूं  II
तुंहिज सबही हित तुहिंज मुगति दाता,
तिण नमि नमि प्रभु चरणे लागुं II देo II १ II
कहे साधु त्रीजी पूजा केवल दंसण  नाण,
देवदूष्य मिश देहुं उत्तम वागुं II
श्रवण अंजली पुट सुगुण अमृत पीता,
सविराडे दुख संशय घूरम भांगुं II देo II २ II

(देव दुष्य अर्थात देवताओं द्वारा प्रदत्त वस्त्र) देव दुष्य के जोड़े से जगत गुरु प्रभु की पूजा करते हैं. हे देव आप हमारे दुखों का हरण करें बस मैं इतना ही मांगता हूँ. (वैदिक संस्कृत में ष और ख एक जैसे रूप में व्यवहृत होता है. यहाँ पर उसी का सुन्दर प्रयोग करते हुए दुष और दुःख का एक जैसा प्रयोग किया गया है). आप ही सभी हित के कारण एवं आप ही मुक्ति के दाता हैं, अतः बारम्बार नमन कर के मैं आपकी चरण वंदना करता हूँ (१). साधु (कीर्ति) 'वैराडी राग"में तीसरी पूजा में देवदुष्य युगल के छल से उत्तम केवल दर्शन-ज्ञान रूपी युगल की कामना करते हैं. कानों को अंजली बना कर (परमात्मा के) सुगुणरूपी अमृत को पीते हुए सभी संशयों का नाश कर दुखों को मूल से नाश करता हूँ (२).      

सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 1


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सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 3

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  अथ चतुर्थ वासक्षेप पूजा
[राग - गोडी में दोहा]
पूज चतुर्थी इणि परें, सुमति वधारे वास II
कुमति कुगति दूरे हरे, दहे मोह दल पास II १ II


अर्थ: वासक्षेप अर्थात सुगन्धित द्रव्य की यह चौथी पूजा सुमति अर्थात सुबुद्धि को बढ़ानेवाली है. यह पूजा मोह के समूह रूप वंधन का दहन करनेवाली एवं कुमति व कुगति को दूर करनेवाली है. 
[राग सारंग]
हांहो रे देवा बावन चंदन घसि कुंकुमा,
चूरण विधि विरचि वासु ए II हांo I१I
कुसुम चूरण चंदन मृगमदा,
कंकोल तणो अधिवासु ए II हांo I२I
वास  दशो दिशि वासतें,
पूजे जिन अंग उवंगु ए II हांo I३I
लाछी भुवन अधिवासिया ए,
अनुगामिक सरस अभंगु ए II४II  


अर्थ: हे देव! जिस प्रकार इंद्र (वासव-वासु) ने चूर्ण बना कर (प्रभु की पूजा की थी वैसे) बाबना चन्दन कुंकुम (केशर) के साथ घसकर (१) पुष्पों का चूर्ण, कंकोल, कस्तूरी, एवं पुनः चन्दन मिलकर अधिक सुगन्धित कर (२)देशों दिशाओं को सुगन्धित करते हुए जिनवर के अंग उपांग की पूजा करते हैं (३). यह पूजा जगत के जीवों के लिए सरस एवं अभंग ऐसे मोक्ष पद का अनुगमन करानेवाली है.     
[राग -गोडी तथा पूर्वी]
मेरे प्रभुजी की पूजा आणंद मिले, मेरे प्रभुजी की II मेo II
वास भुवन मोह्यो सब लोए, संपदा भेलें की II पूजाo II १ II
सतर प्रकारे पूजे विजय, देवा तत्ता थेई II
अप्रमित गुण तोरा चरण सेवा की II पूजाo II २ II
कुंकुम चंदनवासें पूजीयें, जिनवर तत्ता थेई II
चतुर्गति दुख गौरी चतुर्थी धनकी II पूजाo ३ II


अर्थ: मेरे प्रभु की पूजा से आनंद मिलता है. (वासक्षेप के) सुगंध ने सम्पूर्ण जगत का मन मोह लिया है, (और प्रभु की पूजा से) सम्पदाएँ भी मिलती है (१). तत्ता थेई नृत्य करते हुए विजय देव ने सत्रह प्रकार से प्रभु की पूजा की थी. प्रभु आपके चरणों की सेवा करने से अपरिमित गुणों की प्राप्ति होती है (२). "गौरी राग: में गेय इस चौथी पूजा में केशर- चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से प्रभु की पूजा करने से चतुर्गति रूप दुःख का नाश होता है और (मोक्ष रूपी) धन की प्राप्ति होती है. 

अथ पंचम पुष्पारोहण पूजा
[दूहा]
मन विकसे तिम विकसतां, पुष्प अनेक प्रकार II
प्रभु पूजा ए पंचमी, पंचमी गति दातार II १ II

जिस प्रकार पुष्प विकसित होता है उसी प्रकार (अनेक प्रकार पुष्पों से प्रभु पूजा करने से) मन भी विकसित होता है. प्रभु की ये पंचमी पूजा है और यह पञ्चमी अर्थात मोक्ष गति प्रदान करनेवाली है. 
[राग -कामोद]
चंपक केतकी मालती ए, कुंद किरण मच कुंद II
सोवन जाइ जूहीका, बिउलसिरी अरविंद II १ II
जिनवर चरण उवरि धरे ए, मुकुलित कुसुम अनेक II
शिव - रमणी सें वर वरे, विधि जिन पूज विवेक II २ II

चम्पक, केतकी, मालती, चंद्र के सामान उज्जवल श्वेत किरणवाली मचकुन्द, जाई, जूही, बेली, श्री, कमल आदि अनेक प्रकार के खिले हुए पुष्प (१) जिनवर के चरणों में चढाने से एवं विधि व विवेक पूर्वक जिनपूजा करने से (वह श्रावक) श्रेष्ठ शिव रमणी को वरन करता है (२).    
[राग कानड़ो]
सोहेरी माई वरणे मन मोहरी माई वरणे II
विविध कुसुम जिन चरणे II सोo II
विकसी हसि जंपें साहिबकुं, राखि प्रभु हम सरणें II सोo II १ II
पंचमी पूज कुसुम मुकुलित की, पंच विषय दुख हरणे II सोo II
कहे साधुकीरति भगति भगवंत की, भविक नरा सुख करणे II सोo II २ II

मेरे प्रभु (विभिन्न) वर्णों से शोभायमान हो रहे हैं, इन वर्णों की छटा से मेरा मन मोह रहा है. विविध प्रकार के (पंचवर्णी) पुष्प प्रभु के चरणों में (शोभायमान हो रहे हैं). यह विकसित फूल मानो हंस कर यह कह रहे हैं की हे प्रभु आप हमें अपने शरण में रखिये(१). खिले हुए फूलों की यह पांचवीं पूजा पांच इन्द्रिय विषयों के दुःख का हरण करनेवाली है. यहाँ साधुकीर्ति कह रहे हैं की परमात्मा की भक्ति भाविक जीवों के सुख का कारण है (२). 
                                                              अनुवादक: ज्योति कुमार कोठारी 



सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 2



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सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 4

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अथ छट्ठी मालारोहण पूजा
[राग - आशावरी में दूहा]
छट्ठी पूजा ए छती, महा सुरभि पुफमाल  II
गुण गूंथी थापे गले, जेम टले दुखजाल II १ II


अत्यंत सुगन्धित पुष्पों की माला की यह छठी पूजा है. ये पुष्पमाला जैसे गुणों को माला है जिसे प्रभु के गले में डालने से दुखों का जाल टल जाता है. 
[राग -रामगिरि गुर्जरी]
हे नाग पुन्नाग मंदार नव मालिका,
हे मल्लिकासोग पारिधि कली ए I१I 
हे मरुक दमणक बकुल तिलक वासंतिका,
हे लाल गुलाल पाडल  भिलि  ए I२I
हे जासुमण मोगरा बेउला मालती,
हे पंच वरणे गुंथी मालथी ए I३I
हे माल जिन कंठ पीठे ठवी लहलहे,
हे जणि संताप सब पालती ए II४II


नाग चम्पा, सुल्तान चंपा अर्थात नागकेशर, नंदनवन के पांच पुष्पों में से एक मंदार, नवमालिका- बेली जैसा एक फूल, मल्लिका, अशोक, एवं परिध की कली, (१) मरुवा, दौना, (एक पीले रंग का फूल) वकुल, तिलक या तिलिया (एक सफ़ेद रंग का फूल), वासंतिका- नवमल्लिका, लाल फूल, गुलाब, पैदल अर्थात जवा, आदि फूलों को इकठ्ठा कर (२)  मोगरा, बेली, मालती आदि पांच रंगों के फूलों की माला गूँथ कर (प्रभु के कंठ में पहनाते) हैं  (३) यह माला जिनेश्वर प्रभु के कंठ स्थान में लहलहाती है, और सभी लोगों के संताप को दूर करती है (४) 

[राग-आशावरी]
देखी दामा कंठ जिन अधिक एधति नंदे,
चकोरकुं देखि देखि जिम चंदे II
पंचविध वरण रची कुसुमा की जैसी,
रयणावली सुहमीदें II देo II १ II
छठी रे तोडर पूजा तब डर धूजे,
सब अरिजन हुइ हुइ तिम छंदे II
कहे साधुकीरति सकल आशा सुख,
भविक भगति जे जिण वंदे II देo II २ II


जैसे चन्द्रमा को देख कर चकोर हर्षित होता है वैसे जिनवर देव के कंठ में माला (दामा) अत्यंत अधिक आनंद होता है. पांच प्रकार के वर्णों के पुष्पों की माला ऐसी शोभायमान है जैसे रत्नों की आवली अर्थात लाइन बनाई गई हो (१). यह छठी पूजा पुष्पमाला अर्थात टोडर की है, यह पूजा करनेवालों से सभी प्रकार के डर भी डर जाते हैं और सभी शत्रु भी भयभीत हो जाते हैं. आशावरी राग में गाये जाने वाली इस पूजा में साधुकीर्ति कहते हैं की जो भाविक जान भक्तिपूर्वक जिनदेव की पूजा करता है उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं और सभी सुखों की प्राप्ति होती है.(२)  

अथ  सप्तम वर्णपूजा प्रारंभ:
[दूहा]
केतकि चंपक केवडा, शोभे तेम सुगात II
चाढो जिम चढतां हुवे, सातमियें सुखशात II १ II


केतकी, चम्पा, केवड़ा, आदि पुष्पों से परमात्मा का सुन्दर शरीर शोभायमान हो रहा है. सातवीं पूजा में इन फूलों को चढ़ाते हुए (भावों की उच्च श्रेणी) चढ़ कर सुख एवं साता को प्राप्त करते हैं. 
[राग - केदार गोडी]
कुंकुम चरचित विविध पंच वरणक, कुसुमस्युं हे I
कुंद गुलाबस्युं चंपको दमणको, जासुस्युं ए II
सातमी पूजमें आंगिये अंगि, अलंकियें ए II
अंगी आलंकि मिस मानिनी मुगती आलिंगियें  ए II १ II


केशर से पूजन कर पञ्च वर्ण के चमेली, गुलाब, चम्पा, दौना जवा, आदि विविध पुष्पों से सातवीं पूजा में प्रभु के अंग में आंगी की रचना कर उसे अलंकृत करते हैं. आंगी की रचना कर मानो मुक्ति का आलिंगन करते हैं. 
[राग भैरवी]
पंच वरण अंगी रची, कुसुमनी जाती II  फूलनकी जाती II पंo II
कुंद मचकुंद गुलाब सिरोवरी (शिरोमणि), कर करणी सोवन जाती II पंo II
दमणक मरुक पाडल अरविंदो, अंश जूही वेउल वाती II पंo II १ II
पारिधि चरणि कल्हार मंदारो, वर्ण पटकुल  बनी भांति II पंo II
सुरनर किन्नर रमणि  गाती, भैरव कुगति व्रतति दाती II पंo II २ II  


विभिन्न जातियों के पांच रंगों के फूलोंसे आंगी बनाते हैं. चमेली, कनकचंपा, गुलाब के फूलों को शिर के ऊपर;  दौना, मरुवा, पाटली, कमल, आदि कंधे पर और जूही एवं बेलि सुगंध फैला रही है, पीला या सफ़ेद कमल, मंदार एवं पाटल आदि चरणों में शोभायमान हैं. देव, मनुष्य, किन्नर आदि की मनोरम स्त्रियां (प्रभु के गीत) जाती हैं और भैरव  गेय यह पूजा कुगति रूपी लताओं को काटने के लिए यह दांती (हंसिया) के समान है.   
अनुवादक:  ज्योति कुमार कोठारी

सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 3 


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सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 5

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अथ अष्ठम गंधवटी पूजा
 (प्रक्षिप्त) [दूहा राग-सोरठ]
सोरठ राग सुहामणी, मुखें न मेली जाय II
ज्युं ज्युं रात गलंतियां, त्यूं त्यूं मीठी थाय II १ II
सोरठ थारां देश में, गढ़ां बड़ो गिरनार II
नित उठ यादव वांदस्यां, स्वामी नेम कुमार II २ II
जो हूंती  चंपो बिरख, वा गिरनार पहार II
फूलन हार गुंथावती, चढ़ती नेम कुमार II ३ II
राजीमती गिरवर चढ़ी, उभी करे पुकार II
स्वामी अजहु न बाहुडे, मो मन प्राण आधार II ४ II
रे संसारी प्राणिया, चढ्यो न गढ़ गिरनार II
जैन धर्म पायो नही,गयो जमारो हार II ५ II
धन वा राणी राजीमती, धन वे नेम कुमार II
शील संयमता आदरी, पहोतां भवजल पार II ६ II
दया गुणांकी वेलडी, दया गुणांकी खान
अनंत जीव मुगते गया, दया तणे परमाण II ७ II
जगमें तीरथ दोइ बडा,  सेत्रुंजो गिरनार II
इण गिर रिषभ समोसर्या, उण गिर नेम कुमार II ८ II (प्रक्षिप्त)

सत्रह भेदी पूजा में यहाँ दोहे की जगह सोरठा है जिसका छंद दोहे से उल्टा होता है. सोरठा का सम्वन्ध सोरठ से जोड़ कर यहाँ पर बाद के काल में उपरोक्त छंद (प्रक्षिप्त) जोड़ दिए गए, यह मूल पूजा का अंश नहीं है.  
[दोहा-सोरठ]
अगर सेलारस सार, सुमति पूजा आठमी II
गंधवटी घनसार, लावो जिन तनु भावशुं II १ II

जिनेश्वर देव के शरीर को भावपूर्वक गंधवटी से पूजन करने रूप यह आठवीं पूजा सुमति प्रदान करनेवाली है. अगर, सीलारस, बरास आदि सुगन्धित द्रव्य से प्रभु की पूजा का अधिकार (शास्त्रों में वर्णित) है.  

[राग-सामेरी]
कुंद किरण शशि उजलो जी देवा,
पावन घन घन सारे जी II
आछो सुरभि शिखर मृग नाभिनो जी देवा,
चुन्न रोहण अधिकारे जी II आo II
वस्तु सुगंध जब मोरिये जी देवा,
अशुभ करम चुरीजे जी II आo II
आंगण सुरतरु मोरिये जी देवा,
तब कुमति जन खीजे जी II
तब सुमति जन रीझे जी II १ II


चन्द्रमा के किरण के सामान उज्जवल व पवित्र घनसार अर्थात बरस, सभी सुगंधियों में श्रेष्ठ कस्तूरी, चन्दन का चूर्ण, आदि से मिलकर गंधवटी (बनती है). जब परमात्मा के सुगन्धित वस्तु से विलेपन किया जाता है तब वह विलेपन करनेवाला अपने अशुभ कर्म को चूर्ण अर्थात नष्ट करता है यहाँ मोरिये का अर्थ युद्ध में मोर्चा अर्थात व्यूह रचना से है. पूजा करनेवालों के आँगन में सुरतरु अर्थात कल्पवृक्ष पुष्पित हुआ है (यहाँ मोरिये का अर्थ पुष्पित होना है), और  तब कुमति अर्थात कुबुद्धि जन को खीझ उत्पन्न होती है और सुमति जनों को हर्ष उत्पन्न होता है.    
[राग-सामेरी]
पूजो री माई, जिनवर अंग सुगंधे II जिo II पूo II
गंधवटी घनसार उदारे, गोत्र तीर्थंकर बांधे II पूo II १ II
आठमी पूज अगर सेलासर, लावे जिन तनु रागे II
धार कपूर भाव घन बरखत, सामेरी मति जागे II पूo II २ II  


जिनवर का अंग सुगन्धित है उसे सुगंध से पूजो। बरास आदि उत्तम पदार्थों से युक्त गंधवटी से पूजन करने वाला तीर्थंकर गोत्र का वंध करता है. आठवीं पूजा में अगर, शिलारस, कपूर आदि द्रव्यों को प्रशस्त राग से प्रभु के शरीर में विलेपन करते हैं. कपूर की धारा के साथ जैसे सघन भावों की वर्षा होती है. सामरी राग में गेय यह पूजा अपनी मति अर्थात बुद्धि को जगानेवाली है.  

अथ नवम ध्वज पूजा
[दुहा]
मोहन ध्वज धर मस्तकेंसुहव गीत समूल II
दीजें तीन प्रदक्षिणानवमी पूज अमूल II  II

मन मोहने वाले ध्वज को मस्तक पे धारण कर (सुहा राग) सुंदर गीत गाते हुए, तीन प्रदक्षिणा दे कर यह पूजा की जाती है और यह अमूल्य पूजा है.  


[राग-गोडी में वस्तु छंद]
सहस जोयण सहस जोयण हेममय दंड,
युत पताक पंचे वरण II
घुम घुमंत घूघरी वाजे,
मृदु समीर लहके गयणं II
जाणि कुमति दल सयल भांजे (१)
सुरपति जिम विरचे ध्वज नवमी पूज सुरंग II
तिण परि श्रावक ध्वज वहनआपे दान अभंग II २ II

एक हज़ार योजन ऊँचा सुवर्णमय दंड, पांच रंग की पताकाओं से युक्त, जिसमे घूम घूम कर घुंगरू वज रहे हैं, आकाश में हलकी हलकी कोमल हवा बह रही है, मनो सभी कुमति के समूह को  नष्ट करनेवाली हो (१), देवराज इंद्र ने जिस प्रकार इंद्र ध्वज की रचना की थी वैसे ही श्रावक भी ध्वज का वहन कर, वो ऐसा दान करता है जिसका कोई अंत नहीं. (२)


[राग नट्ट -नारायण]
जिनराज को ध्वज मोहनांध्वज मोहनां रे ध्वज मोहनां II जिo II
मोहन सुगुरु  अधिवासियोकरि पंच सबद त्रिप्रदक्षिणा I
सधव वधू शिर सोहणा II जिo II  II
भांति वसन पंच वरण वण्यो रीविध करि ध्वज को रोहणां II
साधु भणत नवमी पूजा नव, पाप नियाणां खोहणां II
शिव मन्दिरकुं अधिरोहणाजन मोह्यो नट्टनारायणा II जिo II  II

जिनेश्वर देव का ध्वज मन मोहनेवाला है. मोह को नष्ट करनेवाले सुगुरु के द्वारा अधिवासित (अर्थात वासक्षेप डाल कर), सधवा स्त्री के शिर पर शोभायमान ध्वज को ले कर पांच प्रकार के (वजित्रों के) शब्द करते हुए तीन प्रदक्षिणा दे कर (१) पांच रंग के कपडे से बने हुए ध्वज को  विधि पूर्वक चढ़ाना है. साधुकीर्ति कहते हैं यह नवमी पूजा नौ प्रकार के पाप निदान (नियाणा) को नष्ट करनेवाली है, मोक्ष मंदिर में चढानेवाली है. "नट्टनारायण"राग में गेय यह पूजा जन मन को मोहनेवाली है. 

अनुवादक:  ज्योति कुमार कोठारी

सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 3


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सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 6

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अथ दशमी आभरण पूजा
[राग-केदार में दूहा]
शिर सोहे जिनवर तणेरयण मुकुट झलकंत II
तिलक भाल अंगद भुजाश्रवण कुंडल अतिकंत II  II 
दशमी पूजा आभरणरचना यथा अनेक II
सुरपति प्रभु अंगे रचेतिम श्रावक सुविवेक II  II

रत्नों से बना हुआ देदीप्यमान मुकुट जिनवर के मस्तक में शोभायमान है, ललाट में तिलक, बांहों में अंगद (बाजूबंद), और कानों में कुण्डल बहुत ही प्रिय और मनोरम है (१). यह दसवीं पूजा आभूषण की है, जिसमे अनेक प्रकार से प्रभु की (अंग) रचना की जाती है. जिसप्रकार सुरपति अर्थात देवराज इंद्र ने प्रभु के अंगों को (सजाया था)  उसी प्रकार श्रावक भी विवेक पूर्वक यह कार्य करे (२). 

[राग -गुंड मल्हार]
पांच पीरोजा नीलू लसणीयामोती  माणकने लाल रसणीया,
हीरा सोहे रेमन मोहे रे,
धूनी चूनी पुलक करकेतनांजातरूप सुभग अंक अंजना,
मन मोहे रे II  II
मौलि मुकुट रयणें जडयोकाने कुंडल जुगते जुड़यो II
उरहारु रे मनवारु रे II  II
भाल तिलक बांहे अंगदाआभरण दशमी पूजा मुदा II
सुखकारु रेदुखहारू रे II  II

पांच प्रकार के रत्न, अथवा सभी रत्न पांच पांच की संख्या में फ़िरोज़ा, नीला, लसनिया, मोती, मानक, हीरा, आदि सभी शोभते हैं और मन को मोह रहे हैं. चुन्नी (मानक का एक रूप), तामड़ा, कर्केतक, सोना, अंजन रत्न, आदि मनोहारी एवं सौभाग्यसूचक रत्न मन को मोह रहे हैं (१). मस्तक में मुकुट रत्नों से जड़ा हुआ है, कानों में कुण्डल बहुत ही  बनाया गया है, (इनकी शोभा) ह्रदय का हरण करनेवाली है, और मन इनपे न्यौछावर हो जाता है (२). ललाट पे तिलक, और बाँहों में बाजूबंद, (ये सभी) आभरण (आभूषण) यह दशमी पूजा प्रमुदित करनेवाली है. सुख करनेवाली एवं दुःख हरनेवाली है (३). 

[राग-केदार]
प्रभु शिर सोहेमुकुट मणि रयणे जड्यो II
अंगद बांह तिलक भालस्थलयेहु देखउ कोन घडयो II प्रo II  II
श्रवण कुंडल शशि तरणि मंडल जीपेसुरतरु सम अलंकरयो II
दुख केदार चम सिंहासण,छत्र शिर उवरि धरयो,
अलंकृति उचित वरयो II  II

प्रभु के मस्तक पर मणि रत्नों से जड़ित मुकुट शोभायमान है. बाँहों में बाज़ू बंद, ललाट में तिलक (की शोभा) देख कर कवि आश्चर्य से चकित पूछते हैं की इन्हे किसने बनाया? (१) कानों में कुण्डल चन्द्रमा और सूर्य की भी काँटी को जीतने वाली अर्थात उस से भी अधिक है, और प्रभु कल्पवृक्ष के सामान (अलंकारों से) अलंकृत हैं.  दुखों को नष्ट करने वाले केदार राग में गेय (केदार शब्द का द्विअर्थी प्रयोग) यह पूजा है. प्रभ चामर, सिंहासन अदि (प्रातिहार्यों से) सुशोभित हैं और शिर के ऊपर छत्र धरा हुआ है, इस प्रकार प्रभु श्रेष्ठ आभूषणों से उचित प्रकार से अलंकृत हैं (२). 

अथ एकादश फूलधर पूजा
[दूहा]
फूलधरो अति शोभतो, फुन्दे  लहके फूल II
महके परिमल महमहेग्यारमी पूज अमूल II  II

फूलों से शोभित घर (फूलघर) अत्यंत शोभायमान है जिस्म फंडों में फूल खिल रहा है. यहाँ पर "महके परिमल महमहे"तीनों लगभग समानार्थक हैं और खुशबू की आत्यंतिक अवस्था का वोध कराने के लिए  शब्दों का एक साथ प्रयोग किया गया है. भावार्थ ये है की फूलघर के फूलों की विशिष्ट सुवास चारों दिशाओं में तेजी से फ़ैल रही है. यह ग्यारहवीं पूजा अनमोल है. 


{राग-रामगिरि कौतिकीया]
कोज अंकोल रायबेली नव मालिका,
कुंद मचकुंद वर विचकूल  हांरे अइयो विचकूल  II
तिलक दमण दलं मोगरा परिमलं,
कोमल पारिधि पाडलु हांरे अइयो  चोरणूं   II  II

कोज, अंकोल अर्थात ढेरा या थेल नामक फूल(एलैजियम सैल्बीफोलियम या एलैजियम लामार्की), रायबेली, नवमल्लिका, चमेली, नागचम्पा,  और श्रेष्ठ विचकूल फूल, तिलिया, दौना, मोगरा आदि की खुशबु से महकता हुआ, और कोमल परिध एवं पाडल का फुल चित्त को चुरानेवाला है. 

[राग-कौतिकिया रामगिरि]
मेरो मन मोह्योफूलघरे आणंद झिले II
असत उसत दाम वघरी मनोहर,
देखत सबही दुरित खीले II फूo II  II
कुसुम मंडप थंभ गुच्छ चंद्रोदय,
कोरणि चारु विमाणि सझे II
इग्यारमी पूज भणी हे रामगिरि,
विबुध विमाण जिको तिपुरी भजे II फूo II  II


फूलघर ने मेरे मन को मोह लिया है और आनंद से तृप्त कर दिया है. दाम अर्थात फूलों की माला, बघरी अर्थात फूलों की बंगड़ी बना कर (फूलघर सजाया गया है जिसे) देख कर सभी पाप खीर गए अर्थात जहर गए या नष्ट हो गए. फूलघर में पुष्प का मंडप बनाया गया है,  खम्भों को पुष्प गुच्छ से सुसज्जित किया गया है और उसमे चँदवा भी लगाया गया है. सुन्दर मनमोहक कोरनी से इसे (देव) विमान सदृश सजाया गया है. यह ग्यारहवीं पूजा रामगिरि राग में गाई गई है और यह पूजा ऐसी है जैसे देव विमान में इंद्र प्रभु की स्तवन करते हैं. 


सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 3

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सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 7

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अथ द्वादस पुष्पवर्षा पूजा
[दूहा-मल्हार]
वरषै  बारमी पूज मेंकुसुम बादलिया फूल II
हरण ताप सवि लोक कोजानु समा बहु मूल II  II

यह बारहवीं पुष्पवर्षा पूजा है. जगत के सभी ताप को दूर करने के लिए फूल बादल बन कर इतने बरसे की धरती घुटने तक फूलों से भर गई. 

[राग-भीम मल्हार गुंड़मिश्र-देशी कड़खानी]
मेघ बरसै भरीपुप्फ वादल करी,
जानु परिणाम करि कुसुम पगरं II
पंच वरणें बन्योविकच अनुक्रम चन्यो,
अधोवृंतें नहु=नहीं पी पसरं II मेo II  II
वास महके मिलैभमर भमरी भिले,
सरस रसरंग तिणि दुख निवारी I
जिनप आगे करैसुरप जिम सुख वरै,
बारमी पूज तिण पर अगारी II मेo II  II

फूलों का बादल बना है ऐसा मेघ बरस रहा है और घुटने तक फूल भर गया है. पांच रंगों के फूल  इस प्रकार से स्थित हैं की जिनमे उनकी डंडियां नीचे की तरफ हैं (और पंखुड़ियां ऊपर की ओर) और (जिनेश्वर देव के अतिशय से) उन्हें कोई पीड़ा भी नहीं होती है (१). (उन फूलों की) खुशबू से, महक से भौंरे -भौंरी आ कर (उनका  रसपान कर रहे हैं). यह सरस रसरंग दुःख निवारण करनेवाला है. सुरपति इंद्र ने जिनपति के आगे इस प्रकार पुष्पवर्षा की उसी प्रकार बारहवीं पूजा में श्रावक भी करते हैं (२). 
[राग-भीम मल्हार]
पुप्फ वादलिया वरसे सुसमां II अहो पुo II 
योजन अशुचिहर  वरसे गंधोदकमनोहर जानु  समा II अहो पुo II  II
गमन आगमन कुं पीर नहीं तसु, इ जिनको अतिशय गुनें II
गुंजत गुंजत मधुकर इम पभणेमधुर वचन जिन गुण थुणे II  II
कुसुमसु परिसेवा जो करैतसु पीर नहीं सुमिणे II
समवसरण पंचवरण अधोवृन्तविबुध रचे सुमनां सुसमां II पुo II  II
बारमी पूज भविक तिम करेकुसुम विकसी हसी उच्चरे II
तसु भीम बंधन अधरा हुवे,  जे करै जै जिन नमा II पुo II  II
सुखकारक पुष्प के बादल बरस रहे हैं. योजन प्रमाण भूमि के अशुचि को हरण करनेवाला गंधोदक भी बरस रहा है. घुटने तक मनोहर फूल बरस गया है (१). इन पुष्पों के ऊपर आने-जाने वालों से इन्हे किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती यह जिनेश्वर देव का अतिशय है. इन फूलों पर भौंरे गुंजराव कर रहे हैं मानो मधुर वचन से जिनेश्वर देव के गन गा रहे हों (२). फूलों से जो (तीर्थंकर परमात्मा की) सेवा अर्थात पूजा करता है उसका मन प्रसन्न रहता है और उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं होती. समवशरण में देवगण पांच रंगों के सुखदायक अधोवृन्त फूलों की यह रचना करते हैं अर्थात यह देवकृत अतिशय है (३). (जिस प्रकार देवों ने किया) उस प्रकार जो भव्य जीव बारहवीं पूजा में पुष्पवर्षा करता है और विकसित पुष्प के समान आनंदित हो कर (प्रभगुण) का उच्चारण करता है और जिनेश्वर देव का जय जयकार करते हुए उन्हें नमन करता है उसके (कर्मों के) दृढ एवं भयानक वंधन ढीले हो जाते हैं (४). 


अथ त्रयोदश अष्ट मंगल पूजा
[दूहा-कल्याण राग]
तेरमि पूजा अवसरेमंगल अष्ट विधान Ii
युगति रचे सुमंतें सहीपरमानंद निधान II  II

तेरहवीं पूजा में अष्टमंगल का विधान है. कुशलता पूर्वक शुभमति से (यह पूजा करने पर) परमानन्द रूप निधान की प्राप्ति होती है. 
{राग-वसंत]
अतुल विमल मिल्याअखंड गुणे भिल्यासालि रजत तणा तंदुला  II
श्लषण समाजकंविचि पंच (पञ्चविध) वरणकंचन्द्रकिरण जैसा ऊजला  II
मेलि मंगल लिखैसयल मंगल अखेजिनप आगें सुथानक धरे  II
तेरमि पूजविधि ते रमि मन मेरेअष्ट मंगल अष्ट सिद्धि करे  II o II  II

अतुलनीय, निर्मल, अखण्ड आदि गुणों से परिपूर्ण एवं चन्द्रकिरण के सामान उज्जवल शालि धान्य, चावल, चांदी के चावल आदि पांच रंगों के धान से अष्ट मंगल लिख (आलेखन कर) जिनपति के आगे अच्छे स्थान में रखनेवाले के सभी मंगल अक्षय होते हैं. यह तेरहवीं पूजा मेरे मन में रम गई है. अष्ट मंगल अष्ट सिद्धि प्रदान करनेवाली है. 
 [राग-कल्याण]
हां हो तेरी पूजा बणी है रसमें II
अष्ट मंगल लिखैकुशल निधानंतेज तरणि के रसमें II हांo II  II
दप्पण भद्रासण नंद्यावर्त्त पूर्ण कुंभमच्छयुग श्रीवच्छ तसु मे II
वर्द्धमान स्वस्तिक पूज मंगलकीआनंद कल्याण सुखरसमें II हांo II  II

हे प्रभु तुम्हारी पूजा बड़ी रसीली है. अष्टमंगल का आलेखन करने से कुशल मंगल रूप संपत्ति और सूर्य के समान तेज प्राप्त होता है।  कल्याण राग में गेय इस पूजा में दर्पण, भद्रासन, नंद्यावर्त, पूर्णकलश, मत्स्य युगल, श्रीवत्स, वर्द्धमान एवं स्वस्तिक  इन अष्ट मंगलों से पूजा करने से आनंद, कल्याण एवं सुखरस की प्राप्ति होती है. 



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सतरह भेदी पूजा का अर्थ (महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत) भाग 8

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अथ चतुर्दश धूप पूजा
[दूहा]
गंधवटी मृगमद अगरसेल्हारस घनसार II
धरि प्रभु आगल धूपणाचउदमि अरचा सार II  II

गंधवटी, कस्तूरी, अगर, शिलारस, और कपूर-बरास से निर्मित धुप प्रभु के सन्मुख रख कर  (अग्र पूजा)  की गई धुप पूजा, यह चौदमी पूजा है और यह  सारभूत है. 
[राग-वेलावल]
कृष्णागर कपूरचूरसौगन्ध  पंचे पूर,
कुंदरुक्क सेल्हारस सारगंधवटी घनसार 
गंधवटी घनसार चंदन मृगमदां  रस मेलियेश्रीवास धूप दशांग,
अंबर सुरभि बहु द्रव्य भेलियें II
वेरुलिय दंड कनक मंडंधूपधाणूं  कर धरे II
भववृत्ति धूप करंति भोगंरोग सोग अशुभ हरे II  II

काले रंग का अगर,  कपूर चूर्ण, कुंदरुक्क (लोबान), शिलारस, बरास ऐसे पांच सुगंध से भरपूर ऐसे गंधवटी धुप से प्रभु पूजा करनी है. गंधवटी, कपूर, चन्दन, कस्तूरी,  अम्बर आदि बहुत से सुगन्धित द्रव्य मिला कर, श्रीवास अर्थात चीड़ के वृक्ष का सुगन्धित तेल के साथ दशांग धुप मिला कर (दशांग धुप में पद्मपुराण के अनुसार कपूर, कुष्ठ, अगर, चंदन, गुग्गुल, केसर, सुगंधबाला तेजपत्ता, खस और जायफल से दस चीजें होनी चाहिए) अतिशय सुगन्धित धुप बनाया जाता है.  

(धुप का वर्णन कर अब धूपदानी का वर्णन करते हैं). सोने के दंड में वैदूर्य मणि जड़ कर धूपदानी बनी है जिसे श्रावक अपने हाथ में लेकर (प्रभु के आगे धुप खेता है). धुप पूजा करनेवाला भववृत्ति रूप भोग को नष्ट करता है अर्थात जैसे धुप जलकर धुंआ बनकर उड़ जाता है और उड़ते हुए सुगंध फैलता है उसी प्रकार जीव भी जब अपने भोग वृत्तियों को जला कर नष्ट करता है तब उसके आत्मगुणों की सुवास देशों दिशाओं में फ़ैल जाती है. यह धुप पूजा रोग, शोक एवं सभी प्रकार के अशुभ को नष्ट करनेवाली है. 
[राग-मालवी गौड़]
सब अरति मथन मुदार धूपंकरति गंध रसाल रे II देवाकरo II
झाल (धाम) धूमावली धूसरकलुष पातग गाल रे Ii  देवासुo II  II
ऊध्र्वगति सुचंति भविकुंमघमघै किरणाल रे II देo II
चौदमि वामांगि पूजादीये रयण विशाल रे II
आरती मंगल माल रेमालवी गौड़ी ताल रे II o II  II

सभी अरती अर्थात अप्रीति को नष्ट करनेवाले धुप का रसपूर्ण सुगंध (प्रभु के आगे) करते हैं. अग्नि की ज्वाला से उत्पन्न धुषर वर्ण  का धुआँ सभी कलुष और पाप को गलानेवाला है.  (ऊपर उठता हुआ धुंआ) सुगंध से महकता हुआ भवी जीव के ऊर्ध्वगति को सूचित करता है और जीवन को किरणों से भर देता है. यह चौदवीं पूजा धुप की प्रभु के बायीं ओर की जाती है. इस पूजा के साथ ही विशाल दीपकों से आरती एवं मंगल दीपक करना है. यह पूजा मालवी गौड़ी राग में बनाई गई है. 

अथ पंचदसम गीत पूजा
[दूहा]
कंठ भलै आलाप करिगावो जिनगुण गीत II
भावो अधिकी भावनापनरमि पूजा प्रीत II  II

गले से अच्छी तरह आलाप कर प्रभु के गुणों का गीत गाओ और अधिक भावना भाओ, पंद्रहवीं पूजा के द्वारा प्रभु से प्रीत करो. 
[आर्यावृन्तराग-श्री]
यद्वदनंत-केवलमनंत, फलमस्ति जैनगुणगानम II
गुणवर्ण-तान-वाद्यैर्मात्रा भाषा-लयैर्युक्तं II  II
सप्त स्वरसंगीतैं:, स्थानैर्जयतादि-तालकरंनैश्च II
चंचुरचारीचरै - गीतं गानं सुपीयूषम II  II

जैन तीर्थंकरों के गुणगान का फल अनंत केवलज्ञान रूप फल की प्राप्ति है. उन गुणों को तान, वाद्य, मात्रा, भाषा और ले के साथ गान करो. संगीत के सप्त स्वरों, जायतादि स्थानों से, तथा चंचुर चारी नामक ताल एवं गीतों से किया  गुणगान अमृत वर्षी होता है. (चंचुर का अर्थ डिक्शनरी में दक्ष है। यह कोई ताल है ऐसा कोई उल्लेख मिला क्या?)


[राग-श्री राग]
जिनगुण गानं श्रुत अमृतं I
तार मंद्रादि अनाहत तानंकेवल जिम तिम फल अमितं II जिo II  II
विबुध कुमार कुमारी आलापेमुरज उपंग नाद जनितं II
पाठ प्रबंध धूआ प्रतिमानंआयति छंद सुरति सुमितं  II  II
शब्द समान रुच्यो त्रिभुवनकुंसुर नर गावे जिन चरितं II
सप्त स्वर मान शिवश्री गीतंपनरमि पूजा हरे दुरितं II जिo II  II 


जिनेश्वर देव के गुणों का गान करना सुनने में अमृत के समान है. तार, मन्द्र आदि सप्तकों में और अनाहत तान से गेय गीत  केवल ज्ञान रूप अमित फल देनेवाले है. मृदंग, उपंग आदि से नाद उत्पन्न कर देव, कुमार एवं कुमारी अलाप करते हैं. अविच्छिन्न क्रम से दोषरहित पथ का सुव्यवस्थित प्रवंधन कर, ध्रुव अर्थात निश्चित मापदंड के साथ, प्रमाणोपेत, अलाप का विस्तार कर, छन्दवद्ध गायन मन को अति अनुरक्त करता है.  

शब्द अर्थात बाग्यंत्र एवं वाद्य यंत्रों से उत्पन्न वर्णात्मक एवं ध्वन्यात्मक के सटीक प्रयोग से एवं सामान अर्थात एक ही स्थान से उच्चारण किये जानेवाले स्वरों के माध्यम से, जो परिवेश बनता है वह त्रिलोक को रुचिकर है. ऐसे मधुर गायन से देवगण एवं मनुष्य जिन चरित्र का गान करते हैं.  सात स्वरों के परिमानवाला अर्थात सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाती के श्री राग में गेय यह पंद्रहवीं पूजा दुखों को दूर कर शिवफल प्रदान करनेवाली है. 
अथ षोडश नृत्य पूजा
[दूहा]
कर जोड़ी नाटक करेसजि सुंदर सिणसार II
भव नाटक ते नवि भमेसोलमि पूजा सार II  II

[राग-शुद्ध नट्ट II शार्दुलविक्रीड़ितं वृंत]
भावा दिप्पीणा सुचारुचरणा, संपुन्न-चंदानना,
सप्पिम्मासम-रूप-वेस-वयसो, मत्तेभ-कुम्भत्थणा I
लावण्णा सगुणा पिक्स्सरवई , रागाई आलावना 
कुम्मारी कुमरावी जैन पुरओनच्चन्ति सिंगारणा II  II

भावों से दीप्तिमान, सुन्दर चरणों वाली, पूर्ण चन्द्रमा के सामान मुखवाली, सुन्दर रूप व बेषभुषा वाली समवयस्क , मस्तक पर कलश रख कर (मत्तेभ या मत्थेभ), लावण्य एवं गुणों से युक्त कोयल के सामान मधुर स्वरवाली कुमारिकाएँ  एवं कुमार (युवक-युवतियां) श्रृंगार करके विभिन्न रागों में अलाप करते हुए जिनेश्वरदेव के मंदिर में  नृत्य करतें हैं. 

[गंध]
तएणं ते अट्ठसयं  कुमार-कुमरिओ सुरियाभेणं देवेणं संदिट्ठा,
रंग मंडवे पविट्ठा जिणं  नमंता गायंता वायंता नच्चन्तित्ति II

उस समय एक सौ आठ देव एवं देवी सुरियाभ देव के साथ रंग मंडप में प्रवेश करते हैं, जिनेश्वर देव को नमन करते हैं, गाते हैं, बजाते हैं और नाचते हैं. 

[राग-नट्ट त्रिगुण]
नाचंति कुमार कुमरीद्रागडदि तत्ता थेइ,
द्रागडदि द्रागडदि  थोंग थोगनि मुखें तत्ता थेइ II नाo II  II
वेणु वीणा मुरज वाजैसोलही सिंणगार साजेतन-------
घणण घणण घूघरी धमकेरण्णंण्णंणं नानेई II o II  II
कसंती कंचुंकी तरुणीमंजरी झंकार  करणी शोभंति कुमरी
हस्तकृत हावादि भावेददंति भमरी II नाo II  II
सोलमी नाट्क्कतणीसुरीयाभें रावण्ण किनी सुगंध तत्ता त्थेई II
जिनप भगतें भविक लीणाआनंद तत्ता थेई  II o II  II

कुमार एवं कुमारी नाच रहे हैं और विभिन्न बाद्ययन्त्रों के बोल निकल रहे हैं जैसे द्रागडदि  द्रागडदि, 
थोंग थोगनि, तत्ता थेइ आदि. बांसुरी, बीणा, मृदंग आदि बाद्ययन्त्र बज रहे हैं, और सोलह श्रृंगार करके कुमारिकाएँ घुंघरू की घमक के साथ नृत्य कर रहीं हैं. तरुणी स्त्रियां अपनी कंचुकियों को कस कर, मञ्जरी की झंकार के साथ, अपने हाथों से विभिन्न प्रकार की नृत्य मुद्राएं करते हुए भंवरी देते हुए वे कुमारियाँ शोभायमान हो रहीं हैं. जिस प्रकार यह सोलहवीं नाटक (नृत्य) पुजा सुरियाभ देव एवं रावण जैसों ने कर अपने भव को सार्थक किया था उसी प्रकार जिनेश्वर देव की भक्ति में लींन भवी जीव आनंद प्राप्त करते हैं.  

अथ सप्तदश वाजित्र पूजा
[आर्याव्रतम]
सुर-मद्दल-कंसालोमहुरय-मद्दल-सुवज्जए पणवो II
सुरनारि नंदितूरोपभणेई तूं नंदि जिणनाहो II

देव दुंदुभि, कांसी, एवं मधुर आवाज करनेवाले मादल, शंख आदि सुरीले वाद्य के साथ स्वर्गलोक की देवियां मंगलकारक तुरही बजाकर घोषणा कर रहीं है की हे जिन नाथ आप आनंद मंगल कारक हैं. 
[दूहा]
तत घन सुषिरे आनघेवाजित्र चहुविध वाय II
भगत भली भगवंतनीसतरमी  सुखदाय II  II

तत, घन, सुषिर एवं आनघ यह चार प्रकार के वाजित्र  होते हैं, और ये चारों ही प्रकार के वाजे बज रहे हैं. सत्रहवीं पूजा में भगवंत की यह सुन्दर भक्ति सुख देनेवाली है. 
[राग-मधु माधवी]
तूं नंदि आनंदि बोलत नंदी,
चरण कमल जसु जगत्रय वंदी II
ज्ञान निर्मल वचनी (बावन) मुख वेदी,
तिवलि बोले रंग अतिहि आनंदी II तूंo II  II
भेरी गयण वाजंतीकुमति त्याजंती II
प्रभु भक्ति पसायें अधिक गाजंतीसेवे जैन जयणावंती,
जैनशासनजयवंत निरदंदि II
उदय संघे परिप्पर-वदंती II तूंo II  II
सेवि भविक मधु माघ आखे फेरीभवि ने फेरी नप्पभणंती,
कहे साधु सतरमी पूज वाजित्र सब,
मंगल मधुर धुनि कहे (कर) कहंती II तूंo II  II
 आनंद में, बोलने में भी आनंद (उनके गुण )जिनके चरण कमलों की तीनों लोक वंदना करता है. जिनका (केवल) ज्ञान निर्मल है, वचन भी निर्मल और तत्वज्ञान से परिपूर्ण है, ऐसे प्रभु की भक्ति में तबले के बोल भी आनंद रंग उत्पन्न कर रहे हैं. आकाश में भेरी (दुंदुभि) बज रही है, कुमति का त्याग हो रहा है, प्रभु भक्ति के प्रसाद से ज्यादा जोर से गाज रहा है. जयणा का पालन कर जिनेश्वर देव की सेवा होती है. जिनशासन जयवन्त और निर्द्वन्द प्रवर्त्तमान है. संघ का उदय है ऐसा (ये बाजित्र) बार बार कह रहे हैं. मधु माधवी राग में गेय यह गीत गा कर  जो भविक जन प्रभु की सेवा करता है वह भव के चक्करों से बच जाता है. साधु कीर्ति कहते हैं की सत्रहवीं पूजा में सभी वाजित्र मंगल स्वरुप मधुर ध्वनि बोल रहे हैं.  
कलश [राग-धन्याश्री]
भवि तूं भण गुण जिनको सब दिनतेज तरणि मुख राजे II
कवित्त शतक आठ थुणत शक्रस्तवथुय थुय रंग हम छाजे II  II
अणहिलपुर शांति शिवसुख दाईसो प्रभु नवनिधि सिद्धि आवजे II
सतर सुपूज सुविधि श्रावक कीभणी मैं भगति हित काजे II  II
श्री जिनचन्द्र सूरि खरतरपतिधरम वचन तसु राजे II
संवत सोल अढार श्रावण धूरिपंचमी दिवस समाजे II  II
दयाकलश गुरु अमरमाणिक्य वरतासु पसाय सुविधि हुइ गाजे II
कहै साधुकीरति करत जिन संस्तवशिवलीला सवि सुख साजे II  II 

हे भविक जीव, हर दिन सूर्य के सामान तेज है जिनके मुखमण्डल का, उन जिनेश्वर देव के हर दिन गुणगान करो. पूजा के रचयिता साधुकीर्ति कहते हैं की शक्रस्तव के समान १०८ कवित्तों से यह पूजा गाते हुए उनपर स्तुति और भक्ति का रंग चढ़ा है. अणहिलपुर (जहाँ यह पूजा बनाई गई) में पूर्ण शांति है और यह शिवसुख देनेवाली है. यहाँ नव निधि और सिद्धि कारक श्रावक के करने योग्य यह सत्रह भेदी पूजा भक्ति  की कामना से विधि पूर्वक बनाई है. (इस समय) खरतर गच्छाधिपति श्री जिनचन्द्र सूरी के धर्मवचन रूप शासन है. सम्वत सोलह सौ अठारह (ईश्वी सन 1561) के श्रवण बड़ी पंचमी के दिन इस पूजा को समाज के सामने प्रकाशित किया गया. अपने गुरु श्रेष्ठ दयाकलश अमर माणिक्य के प्रभाव से यह विधि बनाई जा सकी, जिनेश्वर देव के गुणगान करते हुए साधुकीर्ति कहते हैं की यह पूजा सभी सुखों के धाम शिव गति को प्राप्त करनेवाली है.

II इति सतरहभेदी पूजा सम्पूर्णा II



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ভগবান মহাবীর ও বাংলায় জৈন ধর্ম

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ভগবান মহাবীর

"জগৎ জুড়িয়া এক জাতি আছে, সে জাতির নাম মানুষ জাতি।
এক ই পৃথিবীর অন্নে লালিত, এক ই রবি শশী মোদের সাথী"

বাংলা ভাষার এইটি একটি প্রসিদ্ধ কবিতা। ভগবান মহাবীর কিন্তু আর ও আগে চলে গিয়েছিলেন। তিনি বললেন শুধু মানুষ নয় সমস্ত জীবজগত ই সম্মিলিত রূপে এক ই জাতি। তিনি জৈন আগম 'স্থানাংগ সূত্রে'উদাত্ত স্বরে ঘোষণা করলেন "এগে আয়া"অর্থাৎ সমস্ত জীব জগৎ এক. বসুধৈব কুটুম্বকমের এই অবধারণা ই মহাবীর কে অন্য্ সমস্ত মহাপুরুষদের থেকে ভিন্ন করে, এবং তাকে সর্বশ্রেষ্ঠ রূপে প্রস্তুত করে.

মহাবীরের অন্য্ একটা বিশেষত্ব নিয়ে চর্চা না করলে সেই মহাপুরুষকে ঠিক মত্ বোঝা যাবে না. কেবল জ্ঞান প্রাপ্তির পর তিনি সর্বজ্ঞ হলেন, তারপর উপদেশ প্রারম্ভ করলেন। তিনি যখন তার প্রথম উপদেশ দিলেন তখন কিন্তু সেটা নিজের নাম শুরু করেন নি. তিনি কখন ই বলেন নি যে তিনি কোনো নতুন ধর্ম প্রবর্তন করছেন। তিনি বললেন, আমার আগে অনন্ত অর্হৎ বা তীর্থঙ্কর হয়েছেন এবং ভবিষ্যতে ও হবেন। তারা সবাই এই বলেছেন, এবং ভবিষ্যতে বলবেন যে জেব মাত্রের হিংসা না করা অর্থাৎ অহিংসা ই একমাত্র ধর্ম। তিনি যে ধর্মের কথা বলছেন সেটা কিন্তু নতুন কিছু নয়, সেটা একটা নিত্য, সনাতন প্রবাহ। যেমন নদির প্রবাহ মাঝে মাঝে অবরুদ্ধ হয়ে যায়, এবং কোনো বিশিষ্ট শক্তিশালী মানুষ সেই প্রবাহ কে আবার  খুলে দেয় ঠিক সেই ভাবে ধর্মের প্রবাহ অবরুদ্ধ হলে, তার মধ্যে বিকৃতি এলে তীর্থঙ্কর জন্ম নেন এবং ধর্মের সেই চিরন্তন স্রোত কে পুনরায় গতি প্রদান করেন, ধর্ম রূপ গঙ্গা কে স্বচ্ছ করেন। মহাবীর দ্বারা উপদেশিত জৈন ধর্ম, যার প্রাচীন নাম অর্হৎ বা নির্গ্রন্থ ধর্ম, এই ধর্মে ব্যক্তি পূজার কোনো স্থান নেই.

কেবল মাত্র এই কালখন্ডে, জৈন পরিভাষায় যাকে 'অবসর্পিনী কাল'বলা হয়, ঋষভদেব থেকে প্রারম্ভ করেপার্শ্বনাথ যেতাম মহাবীর পর্য্যন্ত ২৪ জন তীর্থঙ্কর হয়েছেন, তারা সবাই যা বলেছেন তাই জৈন ধর্ম। মহাবীর তাদের থেকে ভিন্ন কিছু বলেন নি, মাত্র কাল সাপেক্ষে তার ব্যাখ্যা করেছেন।

জাতি প্রথার বিরোধ মহাবীরের অন্যতম অবদান। মহাবীরের সময় বৈদিক ধর্মের এক বিকৃত রূপ সামনে এসেছিল, যার ফলে শূদ্রের উপর প্রচন্ড নির্যাতন হতো. জন্ম থেকে নির্ধারিত হতো জাতি, এবং মানুষের নিজের কোনো স্বাধীনতা ছিল না. মহাবীরের উপদেশ সেই সময়ে শূদ্র এবং তথাকথিত নীচে জাতির জন্য সঞ্জীবনী হয়েছিল। তিনি জন্ম থেকে নয় কিন্তু কর্ম থেকে জাতি স্বীকার করেন।  ভগবান মহাবীর ঘোষণা করলেন

"কম্মনা বম্ভনো হোই, কম্মুনা হোই ক্ষত্তিয়ো,
   কম্মনা বৈশ্য হোই, সুদ্দো হোই কম্মুনা"

অর্থাৎ কর্ম থেকে মানুষ ব্রাহ্মণ হয়, কর্ম থেকেই ক্ষত্রিয় হয়, কর্ম থেকেই বৈশ্য হয় এবং কর্ম থেকেই শূদ্র হয়. জন্ম থেকে নয়, কর্ম অর্থাৎ তার কার্য,  ব্যবহার, দক্ষতা ইত্যাদি থেকে তার জাতি নির্ধারিত হবে. নহাগবান মহাবীর তার শ্রমণ সংঘে সমস্ত জাতির লোক কে গ্রহণ করেছিলেন। তার শিষ্যদের মধ্যে ইন্দ্রভূতি গৌতম  প্রমুখ ব্রাহ্মণ, প্রসেনজিৎ প্রমুখ ক্ষত্রিয়, শালিভদ্র প্রমুখ বৈশ্য এবং হরিকেশবল ইত্যাদি শূদ্ররা স্থান পেয়েছিলেন। তিনি স্ত্রীদের সমুচিত মর্যাদার সাথে শ্রমনী সংঘে দীক্ষিত করেন, চন্দনবালা হয়েছিল তার সাধ্বী প্রমুখা। মহাবীর বলেছিলেন যে চার বর্ণের স্ত্রী -পুরুষ এমনকি নপুংসক ও সম্যক জ্ঞান দর্শন চারিত্র রূপ ত্রিরত্নের সাধনার বলে কেবল জ্ঞান প্রাপ্ত করে, সর্বজ্ঞ হয়ে মোক্ষ প্রাপ্তি করতে পারে অর্থাৎ মানুষই মাত্র ই মুক্তি অর্থাৎ নির্বানের অধিকারী, এর মধ্যে জাতি, বর্ণ , লিঙ্গ ইত্যাদির কোনো ভেদ নেই.

ভগবান মহাবীরের অহিংসার অবধারণ পরিবেশ সংরক্ষণের ক্ষেত্রে ও বিশেষ ভাবে উপযোগী। মহাবীর ই বিশ্বে একমাত্র যিনি কেবলমাত্র প্রাণীজগৎ নয়, কিন্তু উদ্ভিদের মধ্যেও ও প্রাণ আছে এই কথা তা বলেছিলেন। পরবর্তী কালে বাঙালি বৈজ্ঞানিক জগদীশ চন্দ্র বসু এই কথা তা প্রমান করেন মহাবীরের ২৫০০ বাঁচার পারে। মহাবীরের বিরাট চিন্তন আর ও আগে তিনি মাটি, জল, অগ্নি, এবং বাতাসের মধ্যে ও জীব আছে বলেছেন এবং উদ্ভিদ, মাটি, জল, বায়ু, এবং অগ্নি এই পাঁচ তত্বের ও হিংসার নিষেধ করেছেন। এই পাঁচ তত্বের সাহায্য ছাড়া জীবন নির্বাহ অসম্ভব সেই জন্য মহাবীর উপদেশ দিলেন এদের যথাসম্ভব সীমিত ব্যবহার। আজকের পরিবেশ সংরক্ষণের এইটাই মূল সিদ্ধান্ত এবং আজকের ব্যবস্থায় Sustainable Development নাম অভিহিত।

সময়ের অতীতের জানলায় উঁকি দিয়ে দেখলে, পেছনে ২৬০০ বছরের ইতিহাস, তৎকালীন মগধ দেশের ক্ষত্রিয়কুন্ড নগরের রাজা সিদ্ধার্থ এবং মহারানী ত্রিশলারঘরের আঙ্গনে এক সুন্দর রাজপুত্রের জন্ম দেখতে পাওয়া যাবে। রাজপুত্র হলে হবে কি, সংসারের মনোরম ভোগের প্রতি কোনো রুচি নেই. প্রচন্ড পরাক্রমী এবং দেবদুর্লভ শক্তি থাকা সত্বে ও সে তো শান্তির পূজারী। হৃদয়ে করুনার ধারা বয়. যৌবন বয়সে সদা জ্ঞান চিন্তনে সমাধিস্থ। মাত্র ৩০ বছর বয়সে শুধু রাজ্য নয় সদ্য বিবাহিতা রূপ লাবণ্যময়ী পত্নী যশোদা এবং একমাত্র সদ্যজাত পুত্রী সুদর্শনার মোহ ত্যাগ করে বৈরাগ্য ধারণ করে নির্গ্রন্থ দীক্ষা গ্রহণ করেগৃহত্যাগ করলেন চির শান্তি এবং পরম জ্ঞানের খোঁজে। নিজের হাথে সমস্ত অলংকার ই নয় দেহের বস্ত্র ও ত্যাগ করলেন, আর উপডে দিলেন অপরূপ লাবণ্য যুক্ত নিজের কেশ. তারপর প্রারম্ভ হলো দেশ ভ্রমণ; না কোনো ঘোড়া বা গাড়িতে নয় পায়ে হেঁটে। প্রায় রাত্রিবাস কোনো পাহাড়ের গুহায় অথবা ঘন অরণ্যের মধ্যে কোনো গাছের নীচে, কখনো কখনো কোনো শূন্য গৃহে বা দেবালয়ে। ঘানা জঙ্গলে জীব জন্তুর আক্রমণ হোক বা মশা কামড়ায়; মহাবীর নিজের সাধনায় অবিচলিত।

সাড়ে বার বছরের সাধনায় ঘুমান নি, বসেন ও নি, অতন্দ্রিত ভাবে দাঁড়িয়ে দাঁড়িয়ে নিজের আত্ম সাধনায় নিরত ছিলেন মহাবীর। নিরালস সাধনার বলে রিজুবালিকা নাদির তীরে জৃম্ভিক গ্রামে প্রাপ্ত করলেন দিব্য জ্ঞান অর্থাৎ কেবল জ্ঞান, অজ্ঞানের লেশমাত্র নেই যেখানে, মহাবীর হলেন সর্বজ্ঞ। সর্বজ্ঞ হয়ে নিজের দিব্যজ্ঞানে দেখলেন সংসারের স্বরূপ এবং জগতের দুঃখ দূর করার জন্য উপদেশ প্রারম্ভ হলো.

মগধ থেকে বঙ্গ , গৌড়, কলিঙ্গ, আর উৎকল বেশি দূরে নয়. বর্তমান পশ্চিম বঙ্গ তার পদযাত্রার সাক্ষী হয়েছিল। জৈন আগমে বর্ণিত হয়েছে যে সাধনা কালে মহাবীর রাঢ় দেশের ও যাত্রা করে তাম্রলিপ্ত বন্দর পর্য্যন্ত এসেছিলেন। বাংলার বর্ধমান এবং বীরভূম জেলা মহাবীরের নাম আজ ও বহন করছে। মুর্শিদাবাদের কর্ণসুবর্ণ (রাঙামাটি) ও আজিমগঞ্জ (তৎকালীন জৈনেশ্বর দিহি) ও হয়েছিল তার পদযাত্রার সাক্ষী। বাঁকুড়া, বীরভূম, বর্ধমান, পুরুলিয়া ইত্যাদি জেলায় আজ ও ছাড়িয়ে আছে অসংখ্য জৈন মন্দিরের ধ্বংসাবশেষ।

ভগবান মহাবীরের ১৫০ বছর পরে সমগ্র পূর্ব ভাৱতে  ভীষণ দুর্ভিক্ষ হয়েছিল। সেই দুর্ভিক্ষ চলে ১২ বছর পর্য্যন্ত। সেই সংকট সময়ে জৈন সাধুদের কঠিন জীবনচর্যা নির্বাহ করা প্রায় অসম্ভব হয়ে পড়েছিল। সেই সময়ে অনেক জৈন সাধুগণ অনশন করে সমাধি গ্রহণ করেন, অনেকে দক্ষিণ ভারতের দিকে প্রয়াণ করেন। সেই সময়ের প্রমুখ আচার্য ভদ্রবাহু পাটলিপুত্রের রাস্তায় নেপাল গিয়ে নিজের সাধনা কে সমর্পিত করলেন। সেই সময় থেকে পূর্ব ভাড়াটে জৈন ধর্মের হ্রাস প্রারম্ভ হয় এবং দক্ষিণ ভারতে প্রাদুর্ভাব।

সেই সময়ের জৈন সাধুদের অভাবে ধর্মাবলম্বীগনের পক্ষে নিজের ধর্মে স্থির থাকা কঠিন হয়ে যায় কিন্তু তারা জৈন ধর্মের মূল আচরণ অহিংসা কে বজায় রাখেন। এই সম্প্রদায় পশ্চিম বঙ্গে সরাক নামে অভিহিত। সরাক শব্দ জৈন গৃহীদের জন্য প্রযুক্ত  শ্রাবক শব্দের তদ্ভব শব্দ। সরাক জাতির লোকেরা আজ ও বিশাল সংখ্যায় পশ্চিম বাংলার বীরভূম, বর্ধমান, বাঁকুড়া, পুরুলিয়া ইত্যাদি জেলায় বসবাস করেন।

১৭ ই এপ্রিল ভগবান মহাবীরের জন্ম জয়ন্তী। আজ তার চরণে শ্রদ্ধা সুমন অর্পিত করি.

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जैन धर्म में पुद्गल का स्वरुप

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जैन धर्म में पुद्गल का स्वरुप 


पुद्गल शब्द का अर्थ 

पुद्गल शब्द दो शदों से मिलकर बना है. पुत और गल. यहाँ पूत शब्द का अर्थ मिलना और गल का अर्थ बिखरना या बिछुड़ना है. अर्थात जो मिलता और बिछुड़ता है उसे पुद्गल कहते हैं. जैन धर्म में कुल पांच अस्तिकाय और छ द्रव्य माना गया है. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय ये पांच अस्तिकाय हैं. इनमे काल को मिला कर छ द्रव्य होते हैं. इनमे से पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जो मिलता और बिखरता है. 

पुद्गल के गुण-धर्म 

पुद्गल एक रूपी पदार्थ है अर्थात जिसे इन्द्रियों के द्वारा अनुभव किया जा सकता है. षट द्रव्यों में से अन्य सभी द्रव्य आरोपी हैं. पुद्गल में वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श ये चार गुण अथवा धर्म होते हैं. जिन्हे क्रमशः चक्षु, घ्राण, रसना एवं त्वक इन्द्रीओं से जाना एवं अनुभव किया जा सकता है. दो पुद्गलों के टकराने से शब्द की उत्पत्ति होती है जिसे श्रोत्रेँद्रिय से जाना जा सकता है. वस्तुतः दृश्यमान जगत में हम जो कुछ भी देखते जानते हैं वो सब पुद्गल ही है. जैन आगमों में छाया, उष्णता, प्रकाश, अन्धकार आदि को भी पुद्गल का ही प्रकार बताया गया है. 

पुद्गल के चार भेद हैं - स्कंध, देश, प्रदेश एवं परमाणु। 

शरीर-पुद्गल 

मनुष्य एवं अन्य जीवों के शरीर को भी पुद्गल कहा जाता है. पुद्गल पदार्थों से निर्मित होने के कारण इसे पुद्गल कहा जाता है. इसी पुद्गल के अंदर जीव अर्थात आत्मा का निवास होता है.  

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जैन धर्म में अरिहंत का स्वरुप

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जैन धर्म में अरिहंत  का स्वरुप 

ज्योति कोठारी

अरिहंत जैन मान्यतानुसार विश्व ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता है. व्युत्पत्तिगत रूप से अरिहंत शब्द के तीन रूप हैं - अरिहंत, अर्हन्त, अरुहन्त। नवकार मन्त्र के प्रथम पद में अरिहंतों को नमस्कार किया गया है. उनके १२ गुण होते हैं. अर्हन्त तीर्थंकर भी कहलाते हैं और वे धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं. साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप  चतुर्विध संघ जंगम धर्म तीर्थ कहलाता है. भरत क्षेत्र में इस काल में श्री ऋषभ देव से लेकर महावीर स्वामी तक कुल २४ तीर्थंकर हुए हैं.



अरिहंत शब्दार्थ एवं व्याख्या 

अरि अर्थात शत्रु एवं हन्त अर्थात नष्ट करनेवाले. अतः जिन्होंने अपने आतंरिक शत्रुओं राग-द्वेष को सम्पूर्ण रूप से नष्ट किया है वे अरिहंत कहलाते हैं. प्रकारांतर से जिन्होंने अपने ४ घाती कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, एवं अन्तराय को क्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त किया है वे अरिहंत हैं. वे वीतराग, सर्वज्ञ, एवं सर्वदर्शी भी हैं. 

अर्हन्त शब्दार्थ एवं व्याख्या

अर्ह शब्द का पूजा के अर्थ में व्यवहार होता है. अर्थात अर्ह वो है जिसकी पूजा होती हो. जो तीनलोक में पूज्य हैं; देवेन्द्र व नरेंद्र भी जिनकी पूजा अर्चना करते हैं वे परम पूज्य परमेष्ठी अर्हन्त हैं. उनके ४ मूल अतिशय, ८ प्रातिहार्य एवं कुल ३४ अतिशय, व वाणी के ३५ गुण होते हैं. वे डिवॉन के द्वारा रचित समवशरण में स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हो कर १२ पर्षदा के सामने देशना अर्थात धर्मोपदेश देते हैं. उस समय देव पुष्प वृष्टि करते हैं और देव दुंदुभि का निनाद करते हैं.


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Travel Kolkata: Parasnath Jain Temple (Glass temple)

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Travel Kolkata: Parasnath Jain Temple (Glass temple): West Bengal

Principal Deity, Parasnath Jain Temple Kolkata


Sri Sheetalnath Swami, The Tenth  Jain Teerthankara at Parasnath temple, Kolkata
Sri Sheetalnath Swami, The Tenth  Jain Teerthankara at Parasnath temple, Kolkata


Parasnath Jain (Glass) Temple, Kolkata
Parasnath Jain (Glass) Temple, Kolkata

Rai Badridas builder of Parasnath temple


Wanna visit Kolkata? The capital of West Bengal, India? A must visit is Parashnath Jain temple, the glass temple built by Rai Badridas Bahadur Mookim.
Rai Badridas Bahadur Mookim, Court Jewelers, H.E. the Viceroy and Governor General of British India built this beautiful Jain temple and garden in 1867. Rai Badridas was the pioneer of Johari Sath Community. He himself was the designer and architect of this temple according to "Glimpses of Bengal", published in 1905.
The throne of the main Deity Shree Sheetalnath, the tenth Tirthankara in the inner sanctum of the temple is decorated with real gemstones and silver. The entire temple and outside the campus is beautifully decorated with Belgian glass. The garden surrounding the temple is also built of glass.
There are other idols made of Emerald, ruby and other precious gemstones in the temple.
He built this temple to satisfy the urge of his mother Shrimati Khushal Devi, W/O late Shree Kalkadas Sindhar who had observed penance and austerity throughout her life. She performed Ayambil tap, Navpad Oli for long forty-five years.

Integrated settings of colorful glass inside the temple


The roof of inner Veranda in Parasnath temple Kolkata
The roof of inner Veranda in Parasnath temple


Arch inside Parasnath temple Kolkata
Arch inside Parasnath temple

The upper side of the inner wall in Parasnath temple Kolkata
The upper side of the inner wall in Parasnath temple Kolkata


The story behind building Parasnath Jain temple


There is a story behind it. Rai Badridas find his fortune in Gems and Jewelry business in Kolkata and earned huge money. He accumulated enough wealth and bought a piece of land near Jain Dadabadi in Maniktalla region of Kolkata. He wanted a garden house for a luxurious stay there. He informed his mother with joy that he had bought a piece of land to build the same. His mother was a religious lady and was not crazy about mundane things. She warned her son Badridas that he would be involved in worldly luxuries and forget God.
Badridas asked his mother about her will. The mother replied that she would be happy if her son builds a temple of God. Rai Badridas, a devoted son of his mother had done accordingly and built the world famous temple.
The then British Government in India built a huge ornamental gate (photo of the inscription is added in this hub) in the main road (Lower circular road at that time), presently APC Road that leads to the street where the temple is situated. The street itself is named after the temple, Badridas temple street.

Mookim family, present successors of Rai Badridas are managing the temple nowadays. recently they have added fountains to the pond inside the campus.

Extended Beauty

Deva Vimana (Heavenly Vehicle) at both sides of the temple.
Deva Vimana (Heavenly Vehicle) at both sides of the Parasnath temple Kolkata

Garden made of glass and porcelain Parasnath Jain temple Kolkata
Garden made of glass and porcelain Parasnath Jain temple Kolkata

Glass Garden with Iron Carvings Parasnath temple Kolkata
Glass Garden with Iron Carvings Parasnath temple Kolkata
Landscape, design, and architecture

Traveling Kolkata? Parasnath Jain temple is a must see tourist spot.
Rai Badridas Bahadur Mukim, an esteemed member of Jewelers community of Kolkata built this Parasnath Jain temple and decorated it with beautiful glass work from in and outsides. He was a great follower of Jainism.
He established eye-catching idols of Jain Tirthankar, Gandharas, and Yaksha- Yakshanis made in fine quality marble. He did not forget to establish a temple right side the main temple of his Guru Sri Kalyan Surishwar Ji Maharaj along with his forefathers Kalkadas Sindhar et al.
He concentrated on the architecture of the temple. Though it is built in accordance with Jain temple architecture, the influence of British, French and Italian arts are visible here and there. It is worth noting that he himself was the planner, designer, and architect of this wonderful temple.
His love for fine art and aesthetic sense inspired him to decorate the main temple with Gemstones, colorful Belgian glasses, chandeliers and hand paintings. He did not forget to include Terracotta statues, the art of Bengal in his layout. Gardens, lawns, and ponds are parts of the magnificent landscape of the temple.

Architecture and beauty of Parasnath glass temple


The temple is built following Jain school of architecture. Most of the north and eastern Indian Jain temples are built in this style. This style is different from those of western and southern India. Sri Poojya and Yati (Jain monks) were masters of this art. Sri Kalyan Suri, Sri Poojya of Lucknow was behind the establishing the Jain temple. Influence of British architecture is also seen.
The temple is surrounded by decorated gardens, ponds, and fountains. those give it a gorgeous look. One has to cross a long way from the main gate before entering the temple. One can reach the main temple by crossing several steps of a wide staircase. There is a clerestory covered with a gorgeous roof between stairs and gate of the temple.
The main temple is divided into three parts following Indian temple architecture. There are inner sanctum, the courtyard in the middle and an outer ward included in the temple structure. Throne of the main deity Sri Sheetalnath is decorated with gemstones. A huge chandelier with 1008 lights is hanging from the roof of the courtyard. There are several wall paintings in the temple depicting stories from Jain canons.
Rai Badridas, builder of this temple was a renowned jeweler (Title of court jewelers was conferred upon him by the governor general and viceroy of British India) and had a great aesthetic sense. He was generous and spent money generously for his God.
The whole temple (both inside and outside) is decorated with colored glasses from Belgium. This is the uniqueness of this Jain temple. Glass work is integrated and gives a look of colorful enameling.
A pair of decorated elephants standing both sides of the temple gives the monument palatial look.

The gorgeous garden surrounding the glass temple


Parasnath Jain temple is situated between gardens, ponds, and fountains. The gorgeousness of the whole monument makes a visitor speechless. Artistic designs of the gardens make this monument a marvel.
All of the gardens are decorated with glass and porcelain flooring. There are statues of marble, porcelain, and terra cotta standing on pillars in the garden. There is a round tank with an artistic fountain and a big pond in front of the glass temple.
There are pedestals, seats, and chairs to sit and look the beauty of this marvelous Jain temple.
(This article was originally published on 11 August 2009)

Parasnath Jain Glass Temple Maniktalla Kolkata Map

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जैन धर्म का संक्षिप इतिहास

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जैन धर्म के तीर्थंकर 

जैन धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक है. जैन आगमों के अनुसार यह एक शाश्वत धर्म है अर्थात यह सदा से रहा है. वर्त्तमान अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव आदिनाथ ने जैन धर्म की पुनर्स्थापना की. वे प्रागैतिहासिक पुरुष थे. उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट हुए जिनके नाम से इस देश का भारतवर्ष नाम पड़ा. ऋषभदेव के बाद २३ और तीर्थंकर हुए जिनमे २३ वें श्री पार्श्वनाथ या पारसनाथ और २४वें श्री महावीर स्वामी ऐतिहासिक काल के हैं. २२वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ महाभारत काल में हुए और वे श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे.

ह्रींकार- २४ तीर्थंकरों का बीज मन्त्र 

भगवान् महावीर 

महावीर स्वामी 


भगवान् महावीर का जन्म बिहार (तत्कालीन मगध) के क्षत्रियकुण्ड नगर में हुआ. उन्होंने ३० वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की और साढ़े बारह वर्ष की घोर तपस्या के बाद केवल ज्ञान अर्जित किया. इसके बाद वे घूम घूम कर सत्य धर्म का प्रचार करने लगे. ३० वर्ष तक धर्म का प्रसार करने के बाद ७२ वर्ष की आयु में मध्यम अपापा (वर्त्तमान पावापुरी, बिहार) नगरी में भगवन महावीर का निर्वाण हुआ. उनके इंद्रभूति गौतम आदि ११ गणधर (प्रमुख शिष्य) हुए.

भगवान् महावीर की परंपरा 


भगवान् महावीर के शिष्यों में सम्राट श्रेणिक बिम्बिसार, श्रेष्ठि धन्ना एवं शालिभद्र, राजकुमारी चंदनबाला, महारानी चेलना, महारानी मृगावती, शूद्र कुल में उत्पन्न मेतार्य एवं हरिकेशवल आदि प्रमुख हुए. भगवन महावीर के बाद आर्य सुधर्मा, जम्बू, भद्रवाहु, स्थूलिभद्र, वज्रस्वामी, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र सूरी, कुन्दकुन्दाचार्य, हेमचंद्राचार्य, जिन दत्त सूरी, जिनप्रभ सूरी आदि प्रमुख आचार्य हुए.

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जैन धर्म में ऐसे क्या रीति रिवाज़ है जो और धर्मो से अलग है?

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जैन धर्म में कुछ ये रिवाज हैं जो प्रायः अन्य धर्मों में नहीं पाए जाते.
१. रात्री भोजन का निषेध
२. जमीकंद जैसे आलू, प्याज, लहसन, गाजर, मूली आदि खाने का निषेध। इसमें से अन्य धर्मों में भी सिर्फ प्याज, लहसुन का निषेध है.
३. सामायिक एवं पौषध: इसमें कच्चे पानी, आग, बिजली आदि को छूने एवं बाहन प्रयोग व नहाने का निषेध होता है.
४. दिगंबर जैन साधु पूर्णतः नग्न रहते हैं और श्वेताम्बर साधु सफ़ेद कपडे पहनते हैं. परन्तु दोनों ही प्रकार के साधु किसी बाहन का प्रयोग नहीं करते, अग्नि का स्पर्श नहीं करते, धन/ संपत्ति नहीं रखते, जुते नहीं पहनते.
५. श्वेताम्बर जैन मंदिरों में कोई भी शुद्धि के साथ पूजा कर सकता है, स्त्री और शूद्र भी. व्यक्ति स्वयं भगवान् को छू कर सभी प्रकार की पूजा अर्चना कर सकता है इसके लिए किसी पण्डित या पुजारी की आवश्यकता नहीं.
६. अंतिम आराधना के रूप में सल्लेखना या संथारा करते हैं.

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জৈন ধর্মের নবকার মন্ত্র এবং অন্য সূত্র

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জৈন ধর্মের নবকার মন্ত্র

নমো অরিহন্তাণং,
নমো সিদ্ধাণং, 
নমো আয়রিয়াণং, 
নমো উবজ্ঝাযাণং,  
নমো লোএ সব্ব সাহুণং,

এসো পঞ্চ নমুক্কারো, সব্ব পাবপ্পনাসনো,
মঙ্গলাণং চ সব্বেসিং, পঢমং হবই মঙ্গলং।

প্রণিপাত সূত্র 

ইচ্ছামি খমাসমণো বন্দিউঁ, যাবনিজ্জাএ নিস্সিহিযায়ে, মত্থএন বন্দামি।

গুরু সুখশাতা পৃচ্ছা সূত্র 

ইচ্ছকারী ভগবন!  সুহ রাই (সুহ দেবসি). সুখ তপ শরীর, নিরাবাধ সুখ সংযম যাত্রা, নির্বহ্তে হো জী? স্বামী সাতা ছে জী?    

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